ब्रह्म की शक्ति मनुष्य व अन्य जीवों में आत्मा रूप में विद्यमान है. ब्रह्म की ज्ञानशक्ति से सृष्टि के ज्ञान हेतु पांच ज्ञानेंद्रियों का सर्वप्रथम शरीर में विकास हुआ तथा इसकी क्रियाशक्ति से शरीर में पांच ज्ञानेंद्रियों का विकास हुआ. कर्म का आधार ज्ञान है जिसके बिना कर्म संभव नहीं है तथा बिना कर्म के सृष्टि की रचना व उसका संचालन संभव नहीं है.
इसलिए इस सृष्टि को कर्म प्रधान माना गया है. शरीर में इसी कारण ज्ञानेंद्रियों के विकास के साथ ही पांच कर्मेद्रियों का विकास होता है, जो भिन्न-भिन्न कार्यो को संपन्न करती है, जिससे सृष्टि रचना का विकास होता है. इनमें प्रथम वाक् इंद्रिय है जिसका विषय बोलना व अपने विचारों की अभिव्यक्ति देना है. दूसरी कर्मेद्रिय पाणि यानी हाथ है जिनका विषय वस्तु ग्रहण करना है. जिस प्रकार सभी देवताओं में इंद्र ही सबसे शक्तिशाली हैं उसी प्रकार शरीर में सभी कर्मेद्रियों में हाथ ही सबसे शक्तिशाली है.
तीसरी कर्मेद्रिय पाद यानी पांव हैं, जिनका विषय चलना-फिरना है. मनुष्य की गति का यही आधार है. चौथी कर्मेद्रिय पायु है, जिसका विषय मल त्याग करना है. पांचवी कर्मेद्रिय उपस्थ है, जिसका विषय आनंद प्राप्त करना है. यह ऐसा आनंद है, जिसे सृष्टि की विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए मनुष्य द्वारा प्राप्त किया जाता है, जिससे सृष्टि का क्रम बंद न हो जाये. यही कारण है कि इसके देवता ब्रह्म हैं.
आदि शंकराचार्य