‘एक चीन नीति’ का पुनर्मूल्यांकन हो
दूसरों को लाचार कहने वाला चीन महामारी के भंवर में फंसा हुआ है. अर्थव्यवस्था लुढ़कने लगी है. व्यापारिक सहयोगी छूटने लगे हैं. अमेरिका चीन के पीछे लगा है और संघर्ष युद्ध में तब्दील हो सकता है.
आजाद भारत की विदेश नीति ने चीन को सिरमौर बना लिया था. उसकी हर बात ऐसे मान ली गयी कि वह भारत का बहुत बड़ा हितैषी है. दोनों देशों की सांस्कृतिक विरासत और सामरिक समीकरण एक जैसे हैं. तिब्बत के मुद्दे से हमने इसकी शुरुआत की और ताइवान तक फिसलते चले गये तथा 1962 से हम चीन की आक्रामकता सहते चले गये. शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन और आक्रामक बन गया है. चीन की झूठी शक्ति की समझ भी दुनिया के सामने है.
दूसरों को लाचार कहने वाला चीन महामारी के भंवर में फंसा हुआ है. अर्थव्यवस्था लुढ़कने लगी है. व्यापारिक सहयोगी छूटने लगे हैं. अमेरिका चीन के पीछे लगा है और संघर्ष युद्ध में तब्दील हो सकता है. भारत के लिए माकूल स्थिति है चीन की दीवार पर चढ़कर यह बोलने की कि हम एक चीन नीति का पुनर्मूल्यांकन करने जा रहे हैं. भारत की कूटनीतिक धार अभी तेज है और व्यापक समर्थन भी है.
तवांग के मुद्दे को दो तरह से देखा जा सकता है. पहला, चीन की अंदरूनी हालत बहुत ठीक नहीं है. राष्ट्रपति जिनपिंग की राजनीतिक कश्ती भंवर में दिख रही है. वे अपनी हैसियत चीन में साम्यवादी व्यवस्था के संस्थापक माओत्से तुंग के बराबर लाना चाहते हैं, जबकि सच यह है कि चीन का आर्थिक ढांचा 2013 के बाद से हिचकोले खा रहा है. कूटनीतिक चुनौती ताइवान और जापान की तरफ से ज्यादा सख्त भी हुई है.
कोरोना के आघात से चोटिल चीन की साम्यवादी व्यवस्था लोगों के क्रोध को भी झेल रही है. ऐसे मौके पर पडोसी देशों से संघर्ष की बातें लोगों को भ्रमित करती है. इसीलिए चीन ने गलवान संघर्ष के बाद चीन ने तवांग को निशाना बनाया. दूसरा सिद्धांत चीन की भारत की क्षमता को आंकने और उसकी मुस्तैदी को जांचने की हो सकती है. चीन हर समय यह देखना चाहता है कि भारत की सैन्य और राजनीतिक व्यवस्था कितनी सजग और मजबूत है. दोकलाम, गलवान और पुनः तवांग उसी की पुष्टि करता है. चीन युद्ध नहीं करना चाहता है, लेकिन यह जरूर जानना चाहता है कि भारत किस हद तक तैयार है.
भारत और चीन की सीमा विवाद करीब 3,488 वर्ग किलोमीटर तक की है, जबकि चीन महज 2,000 वर्ग किलोमीटर तक को ही विवादित मानता है. विवाद तीन खंडों में बंटा हुआ है. वास्तविक नियंत्रण रेखा का सीमांकन मुख्यतः जमीनी है, लेकिन अभी जिस झील को लेकर विवाद हुआ है, साल के अधिकतर महीनों में बर्फ होने की वजह से उसका प्रयोग स्केटिंग के लिए होता है. झील के 45 किलोमीटर का क्षेत्र भारत के कब्जे में आता है और शेष चीन के. भारत ने गश्त और चौकसी को ध्यान में रखते हुए सड़कों का निर्माण किया है, जो चीन की आंख में किरकिरी बना है.
चीन बहुत पहले से ही सड़क निर्माण के जरिये इस क्षेत्र की चौकसी करता रहा है. वर्ष 2013 के भारत-चीन वार्ता में इस सीमा पर शांति बनाने और बातचीत के द्वारा हल करने की हिमायत की गयी थी. फिर अचानक चीन को बेचैनी क्यों होने लगी है? दुनिया में ऐसी चर्चा है कि शक्ति का हस्तांतरण पश्चिम से पूर्व की ओर हो रहा है यानी अमेरिकी वर्चस्व के दिन लद गये हैं. पूर्व में शक्ति के आने का अर्थ यह नहीं कि संपूर्ण शक्ति चीन के पास आ जायेगी. शक्तियों का बंटवारा होगा, जो भारत और चीन में होगा तथा जापान भी इसमें महत्वपूर्ण घटक होगा.
लेकिन इसके लिए भारत को तिब्बत पर अपनी सोच बदलनी होगी. चीन अपने द्वारा चयनित दलाई लामा को स्थापित करने की कोशिश में लगा हुआ है. उसके सामने तिब्बत मसला एक चुनौती बनने वाला है. भारत के पास एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की साख है और उसकी विदेश एवं रक्षा नीति में जोखिम लेने और झेलने की क्षमता विकसित हो गयी है. चीन अर्थव्यवस्था और सैनिक क्षमता में भारत से आगे है. फिर भी भारत को इससे फायदा ही मिलेगा.
आज भारत के पास अमेरिका का पूर्ण समर्थन है तथा जापान भी भारत के साथ खड़ा है. जरूरत केवल राजनीतिक इच्छा शक्ति की है. चीन की नीति आज भी बहुत हद तक वही है, जो पूर्व राष्ट्रपति देंग के दौर में तय हुई थी- ‘दुश्मन को चुनौती दो, अगर उलटकर दुश्मन तुम्हें चुनौती दे, तो पीछे हट जाओ.’ जब चीन पूरी तरह से महाशक्ति बन जायेगा, तब भारत के हाथ से बात निकल चुकी होगी. अमेरिका का वर्तमान चीन विरोध शीत युद्ध के माहौल से अलग है.
वर्ष 1950 से 1972 तक विरोध वैचारिक था, लेकिन 2016 से 2022 के बीच का द्वंद्व अस्तित्व की जद्दोजहद है. अमेरिका किसी भी कीमत पर चीन को दुनिया का मठाधीश बनते नहीं देख सकता. अमेरिका को अगर कोई देश सार्थक मदद देने की स्थिति में है, तो वह भारत है. चीन की रफ्तार को रोका जा सकता है और उसके लिए तिब्बत से बेहतर और कोई विषय नहीं हो सकता. कूटनीति में समय और परिस्थिति की अहम भूमिका होती है. अगर तीर सही समय पर कमान से नहीं निकला, तो खुद के लिए भी घातक बन सकता है. इसलिए समय की मांग है कि भारत सरकार दशकों पहले हुई गलती को सुधारने का प्रयास करे. चीन का मुख्य द्वंद्व भारत के साथ ही होगा.