किशोर कुमार खेड़ा
ग्रुप कैप्टन (रिटा.)
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भारतीय वायुसेना इस रविवार 91 वर्ष की हो जायेगी. दो परमाणु शक्ति संपन्न पड़ोसियों से घिरे हमारे देश के लिए मौजूदा समय खतरनाक है. जहां एक पड़ोसी राजनीतिक और आर्थिक तौर पर खस्ताहाल है, वहीं दूसरा हमारी सीमाओं पर दम ठोकता रहता है. हमारी उत्तरी सीमा पर पिछले तीन वर्षों से गतिरोध जारी है, जिसमें बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं. चीन ने पिछले तीन दशकों में अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया है और 2016 में पुनर्गठन भी. भारत संख्या और गुणवत्ता, दोनों में चीन से काफी पीछे है. भारत के लिए सबसे मुफीद अपने संसाधनों का समुचित इस्तेमाल करना है.
भारतीय वायुसेना के सामने चुनौती सामग्रियों और संगठन की भी है. युद्धक विमानों की संख्या तेजी से घट रही है, जो किसी भी लड़ाई में बेहद जरूरी होते हैं. सेना के लिए 1000 से ज्यादा युद्धक विमान अधिकृत हैं, मगर अभी उसके पास लगभग 600 विमान हैं. मिग-21, मिग-29, जगुआर और मिराज-2000 की उम्र पूरी होने के बाद 2030 तक युद्धक विमानों की संख्या घटकर 450 तक पहुंच सकती है. हाल में 36 रफाल विमानों के जुड़ने और हल्के तेजस लड़ाकू विमानों की भी बहुत धीमी गति से वायुसेना में शामिल होने से परिस्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आयेगा. वायुसेना को अगले किसी भी युद्ध की तैयारी अपने बेड़े की इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर करनी होगी. दूसरी ओर, 56 नये सी-295 ट्रांसपोर्ट विमानों के आने से वायुसेना की एयरलिफ्टिंग की क्षमता बढ़ेगी. वहीं देसी एएलएच और एलसीएच हेलिकॉप्टरों के आने से भी क्षमता मजबूत होगी. मानव रहित सिस्टमों का इस्तेमाल भी लगातार बढ़ रहा है, जिससे जासूसी, निगरानी, सर्वेक्षण और जमीन और समुद्र में हमलों में मदद मिलेगी. पुराने सिस्टम की जगह नये रडार, जमीन-से-सतह पर मार करने वाले हथियार तथा एकीकृत नेटवर्क भी आ रहे हैं. पर क्या इतना काफी होगा?
सैन्य अभियानों की तैयारी दो आधारों पर होती है- दोनों पक्षों की क्षमता का अंतर और सूचना हासिल करने की क्षमता का अंतर. सैन्य रणनीतियों में मुख्य दिशानिर्देशों के अलावा, यह भी महत्वपूर्ण होता है कि किसी निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी जानकारी हो, जिसमें खर्च भी कम लगे या जो यथासंभव कम समय में जुटाई जा सके. वायुसेना ने 2022 की अपनी नयी नीति में इन्हीं बदलावों पर ध्यान देने का प्रयास किया है और वह शक्तिशाली होने की जगह, होशियार बनने की कोशिश कर रही है. लेकिन मौजूदा साजो-सामान इसमें मदद नहीं कर पा रहे. टोही अवाक्स, उड़ान के दौरान ईंधन भरनेवाले विमान और लंबी दूरी वाले हथियारों की संख्या सीमित है. निगरानी के संसाधन भी बहुत कम हैं. इससे बड़ी चुनौती पेश आ रही है. सशस्त्र सेना के तीनों अंगों के एकीकरण का काम आनेवाले वर्षों में गति पकड़ेगा. अलग-अलग थियेटरों के लिए संसाधनों का वितरण और इस्तेमाल कैसे होता है, इससे ही पता चलेगा कि यह मॉडल कितना सफल रहा.
पिछले सात दशकों से रक्षा में सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार से वांछित परिणाम नहीं मिले हैं. पिछले पांच दशकों से भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बना हुआ है. आत्मनिर्भरता की बात अब नारे से आगे बढ़ती लग रही है और भारतीय उपक्रमों को ऑर्डर मिलने लगे हैं तथा बजट का भी कुछ हिस्सा भारतीय कंपनियों के लिए रखने की नीति बनायी गयी है. लेकिन सार्वजनिक क्षेत्रों की उत्पादकता और गुणवत्ता अभी भी सवालों के घेरे में है. तेजस के उत्पादन की धीमी गति इसका उदाहरण है. रक्षा क्षेत्र को निजी उद्यमों के लिए खोलना, डीआरडीओ की परीक्षण सुविधाओं और तकीनीकों को साझा करना, और रक्षा विनिर्माण गलियारे बनाना सही दिशा में उठाये गये कदम हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं. वायुसेना को अपने सीमित संसाधनों के साथ तैयार रहना होगा और युद्ध को रोकना होगा. यदि इससे मदद नहीं मिलती है, तो उसे अपने साहस, प्रतिभा और संसाधनों का होशियारी से इस्तेमाल कर दुश्मन को मात देनी होगी. याद रखें, लड़ाई में कोई उपविजेता नहीं होता.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)