10.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

नयी कविता के पुरोधा देवताले

देवताले ने बड़े कवियों के बीच न सिर्फ अपनी एक अलग पहचान बनायी, बल्कि कविता का एक नया लहजा भी ईजाद किया. इस अंचल के लोक जीवन को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया.

संजय एम तराणेकर, लेखक-समीक्षक

s.taranekar@rediffmail.com

हिंदी साहित्य में साठ के दशक में नयी कविता का जो आंदोलन चला, चंद्रकांत देवताले उस आंदोलन के एक प्रमुख कवि थे. अगर यह कहा जाये कि वह सिर्फ कवि ही नहीं, वरन् नयी कविता के पुरोधा थे, तो अतिशयोक्ति न होगी. गजानन माधव मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों की परंपरा से वह आते थे. अपने अग्रज कवियों की तरह उनकी कविताओं में भी असमानता, अन्याय, शोषण के प्रति विद्रोह के साथ जनपक्षधरता साफ दिखायी देती है. मुक्तिबोध को जानना उनके जीवन की बहुत बड़ी घटना थी.

अपने एक वक्तव्य में उन्होंने खुद यह बात स्वीकारी की थी, ‘जादू की छड़ी, सृजनात्मक और एक बैचेनी देने वाला पत्थर, एक घाव, एक छाया, ये तमाम चीजें एक साथ मुक्तिबोध से मुझे प्राप्त हुईं.’ मुक्तिबोध के अलावा, महात्मा गांधी की किताब ‘हिंद स्वराज’ का भी उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा. अपने लेख ‘किताबें और मैं’ में वह लिखते हैं, ‘साल 1955 में महाविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में महात्मा गांधी की ‘हिंद स्वराज’ और विनोबा की ‘गीता प्रवचन‘ किताब पुरस्कार में प्राप्त हुई थी’.

मध्य प्रदेश के छोटे से गांव जौलखेड़ा, बैतूल में 7 नवंबर, 1936 को एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे चंद्रकांत देवताले ने बचपन से ही अपने जीवन में अभाव, अन्याय देखा था और इसे भुगता था. यही वजह है कि उनकी कविताओं में निर्ममतम यथार्थ और व्यवस्था के प्रति गुस्सा दिखायी देता है. उनकी ज्यादातर कविताएं प्रतिरोध की कविताएं हैं.

उन्हें पढ़ने-लिखने का बचपन से ही शौक था. उनके बड़े भाई के मित्र प्रहलाद पांडेय, जो एक क्रांतिकारी कवि थे, उनकी कविताओं का चंद्रकांत देवताले के बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा. इसके अलावा सियाराम शरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन, प्रेमचंद एवं यशपाल की कहानियों ने उनके लड़कपन की रुचियों को आकार दिया और तपाया.

बालकृष्ण शर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर जैसे राष्ट्रवादी कवियों को सुन-पढ़कर वह जवान हुए थे. विशेषतः मुक्तिबोध की कविताओं से वह प्रभावित थे. उनकी कविता ‘बुद्ध की वाणी’ को पढ़ते रहते थे. मुक्तिबोध के प्रति उनकी ये दीवानगी ही थी. कि जब हिंदी साहित्य में पीएचडी करने की बारी आयी, तो कवि के तौर पर उन्होंने मुक्तिबोध को ही चुना. चंद्रकांत देवताले ने 1952 में अपनी पहली कविता लिखी, जो 1954 में ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुई.

साल 1957 तक आते-आते उनकी कविताएं उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘धर्मयुग’ और ‘ज्ञानोदय’ में भी प्रकाशित हुईं. उनकी पढ़ाई पूरी हुई, तो रोजगार का संकट पैदा हो गया. चूंकि, उन्हें लिखने-पढ़ने का शौक था, लिहाजा उन्होंने अखबार में नौकरी कर ली. अखबारों में उन्होंने कुछ समय काम किया, लेकिन ये नौकरी उन्हें रास नहीं आयी. बाद में वह अध्यापन में आ गये. मध्यप्रदेश के विभिन्न राजकीय कालेजों में उन्होंने अध्यापन किया और यहीं से रिटायर भी हुए.

मालवा की मिट्टी से कई बड़े कवियों का नाता रहा है, जिसमें मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, डॉ प्रभाकर माचवे, प्रभागचंद्र शर्मा और माखनलाल चतुर्वेदी प्रमुख हैं. इन बड़े कवियों के बीच पहचान बनाना आसान काम नहीं था. देवताले ने इन बड़े कवियों के बीच न सिर्फ अपनी एक अलग पहचान बनायी, बल्कि कविता का एक नया लहजा भी ईजाद किया. इस अंचल के लोक जीवन को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया.

स्थानीय बोली और यहां की संस्कृति भी उनकी कविताओं में प्रकट होती है. आदिवासियों, दलित जीवन और उनकी समस्याओं, संघर्षों पर खूब लिखा. मध्यकाल के प्रमुख मराठी संत तुकाराम के अभंगों और आधुनिक काल के प्रमुख मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविताओं का हिंदी में शानदार अनुवाद किया. सभी भारतीय भाषाओं और कई विदेशी भाषाओं में देवताले की कविताओं का भी अनुवाद हुआ. उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख्त की कहानियों का नाट्य रूपांतरण किया, जो ‘सुकरात का घाव’ और ‘भूखंड तप रहा है’ के नाम से प्रकाशित हुआ.

स्त्रियों के प्रति विशेष सम्मान भाव देवताले की रचानओं में देखा जा सकता है. अपनी एक कविता में स्त्री की जिजीविषा और उसका मानव जीवन में महत्व प्रतिपादित करते हुए वह लिखते हैं, ‘सिर्फ एक औरत को समझने के लिए, हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको, क्योंकि औरत सिर्फ भाप या बसंत ही नहीं है, एक सिम्फनी भी है समूचे ब्रह्मांड की, जिसका दूध, दूब पर दौड़ते हुए बच्चे में, खरगोश की तरह कुलांचे भरता है और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में, जिसमें उसकी शोकमग्न परछाईं, दर्पण पर छायी गर्द को रगड़ती रहती है.’ ना किसी के डर से उनकी कविता की आग ठंडी हुई, बल्कि ऐसे वक्त में उनकी कविताएं और भी ज्यादा मुखर हो जातीं.

अपनी एक कविता में वह कहते हैं, ‘मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा और मैंने उन लोगों पर यकीन नहीं किया, जो घृणित युद्ध में शामिल हैं और सुभाषितों से रौंद रहे हैं अजन्मी और नन्हीं खुशियों को.’ मानव जीवन और समाज की बेहतरी के लिए वह हमेशा बैचेन रहते थे. एक लंबी बीमारी के बाद 14 अगस्त, 2017 को उनका निधन हो गया. चंद्रकांत देवताले आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कविताएं हमें सदैव चंद्रमा का उजास देती रहेंगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें