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सभी धर्मों के बारे में मिले ज्ञान

नैतिक-धार्मिक शिक्षा के पाठों को केवल बहुसंख्यक धर्म के ग्रंथों तक सीमित न करके सभी प्रमुख धर्मों की शिक्षाओं को शामिल किया जाना चाहिए.

गुजरात सरकार ने पिछले सप्ताह शिक्षा से संबंधित दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये, जो दूरगामी और गहरे महत्व के हैं. पहला है पहली कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य करने का तथा दूसरा है सरकारी विद्यालयों में कक्षा 6-12 तक सभी विद्यार्थियों को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाने का. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अंग्रेजी से जुड़ा निर्णय उसे एक विषय के रूप में पढ़ाने का है या माध्यम भाषा के रूप में. हम आशा ही कर सकते हैं कि यह माध्यम भाषा का नहीं होगा.

जिस तरह लगभग हर राज्य सरकार पर अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का नशा चढ़ता जा रहा है, उसे देख कर लगता है देश में ऐसे गंभीर शिक्षाविद खत्म हो गये हैं, जो सरकारों को ठीक सलाह दे सकें या अगर वे उपस्थित हैं, तो इतने निर्बल, निष्प्रभावी और खुशामदी हो गये हैं कि मंत्रियों-अधिकारियों को केवल खुश करनेवाली बातों के अलावा कोई गंभीर सम्मति देने लायक नहीं बचे.

सरकारी विद्यालयों में गीता पढ़ाने का फैसला अहम है. जैसा अपेक्षित था, इस पर विवाद खड़ा गया है. कर्नाटक के शिक्षा मंत्री ने भी ऐसा ही करने की इच्छा जतायी है. मुख्यमंत्री ने इतनी समझदारी दिखायी है कि इस बारे में वे कोई निर्णय विशेषज्ञों की राय मिलने के बाद करेंगे. गुजरात में विशेषज्ञों की राय ली गयी या नहीं, यह सामने नहीं आया है.

गुजरात सरकार के फैसले का समर्थन करते हुए केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा है कि सभी राज्य सरकारों को इसे लागू करने पर विचार करना चाहिए. सभी राज्य यह करें या न करें, हम यह तो पक्का मान ही सकते हैं कि अब भाजपा शासित दूसरे राज्य भी जल्द ही इसकी नकल करने की होड़ में लग जायेंगे. गीता निर्विवाद रूप से भारत का वैश्विक स्तर पर सबसे लोकप्रिय तथा सबसे अधिक प्रकाशित-समीक्षित-सम्मानित धर्मग्रंथ है.

सारा भारतीय अध्यात्म उसमें अपने सबसे व्यापक, उदात्त, स्वीकार्य, सुगम, संश्लिष्ट और समन्वित रूप में उपस्थित है. गीता भारतीय सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मंजूषा का श्रेष्ठतम रत्न है. उससे सुपरिचित होना सौभाग्य है. जो हिंदू गीता से अपरिचित हो, उसे मैं अधूरा-आधा हिंदू कहूंगा. गीता में वे सारे तत्व सूत्र रूप में सम्मिलित और निहित हैं, जिन्हें हम सनातन हिंदू मनीषा का सर्वश्रेष्ठ अवदान मानते हैं. कई लोग, वरिष्ठ राजनेताओं सहित, यह कहते पाये जाते हैं कि गीता सबके लिए है, केवल हिंदुओं के लिए नहीं.

हर बड़े धर्म के मूल ग्रंथों में बहुत से तत्व सचमुच सार्वभौमिक, उपयोगी और श्रेयस्कर होते हैं. बिना ऐसे उदात्त और उच्च तत्वों-सिद्धांतों-आदर्शों और मूल्यों के कोई धर्म न तो दीर्घजीवी हो सकता है और न अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर सकता है. हिंदू धर्मग्रंथों में धर्म के जिन आठ-दस लक्षणों का जगह-जगह उल्लेख मिलता है, वे इसी कोटि के मूल्य हैं, जिन्हें देश-काल-परिस्थिति-भूगोल-संस्कृति की कोई भिन्नता और विविधता बाधित नहीं करती.

दूसरे कई धर्म, जो मुख्यतः किसी एक पुस्तक, एक मसीहा पर आधारित हैं, अपनी-अपनी पुस्तक और पैगंबर के प्रति अटूट निष्ठा और आज्ञापालन की मांग करते हैं. ऐसी कोई मांग सनातन धर्म में नहीं है. गीता में वर्णित धर्म भी किसी एक मूल सिद्धांत और ईश्वरीय रूप के प्रति अविचल निष्ठा की नहीं, धर्माधारित और ईश्वरार्पित कर्म की मांग करता है. गीता हिंदू पौराणिक धार्मिकता, आख्यानों, अवतारों, देवी-देवताओं और उनके मिथकों आदि से काफी मुक्त है, यद्यपि पूर्णतः नहीं.

वह लगभग सार्वभौमिक है, लेकिन इसके बावजूद गीता एक हिंदू धर्मग्रंथ है, इस पहचान और सत्य से उसे अलग नहीं किया जा सकता. इसलिए अहिंदुओं के लिए उसे किसी एक धर्म विशेष से अलग करके निरपेक्ष, सार्वभौमिक आध्यात्मिक ग्रंथ के रूप में देखना और स्वीकार करना कठिन होगा. उसे पढ़ने ने निश्चय ही विद्यार्थियों पर अच्छे संस्कार पड़ेंगे, लेकिन संस्कार तब प्रभावी होते हैं, जब वे जबरन नहीं, ऐच्छिक हों. अनिवार्यता गीता के संभावित सुप्रभावों को घटायेगी. इसलिए बेहतर होगा कि गुजरात सरकार गीता को अनिवार्य नहीं, वैकल्पिक और ऐच्छिक रूप में लागू करे.

एक महत्वपूर्ण प्रश्न है- केवल गीता ही क्यों? भारत इतना बहुधर्मी नहीं होता, तो भी एक अच्छी लोकतांत्रिक शिक्षा नीति से यह अपेक्षित होता कि वह विद्यार्थियों में नैतिक-धार्मिक संस्कार डालने के लिए सभी प्रमुख धर्मों के महान तत्वों से छात्रों को परिचय कराए. भारत में तो यह अनिवार्य ही होना चाहिए. जिस सांस्कृतिक-सामाजिक विविधता का हम इतना वैश्विक ढिंढोरा पीटते हैं, गर्व करते हैं,

उससे धर्म और नैतिक शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों को सुपरिचित न बनाएं, यह हास्यास्पद और हानिकारक होगा. हमारी वर्तमान सामाजिक अशांति और सांप्रदायिकता के बढ़ने का एक कारण यह भी है कि अधिकतर नागरिक और युवा अपने अलावा दूसरे धर्मों के बारे में बेहद कम जानते हैं. इससे न केवल उनके बौद्धिक क्षितिज संकीर्ण रहते हैं, बल्कि धार्मिक-सांप्रदायिक दूरियां-शिकायतें-भ्रांतियां और कटुताएं बढ़ती हैं. जरूरत तो यह है िक विशेष अभियान चला कर इस खतरनाक अज्ञान और उससे उपजीं भ्रांतियों-भयों को मिटाया जाए,

ताकि भारत की प्रगति और भविष्य सांप्रदायिकता की फैलती आग की बलि न चढ़ जाए. आशा है कि गुजरात और कर्नाटक ही नहीं, सभी राज्य सरकारें इस बात के महत्व को पहचानेंगी और अपनी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक-धार्मिक शिक्षा के पाठों को केवल बहुसंख्यक धर्म के ग्रंथों तक सीमित न करके सभी प्रमुख धर्मों की शिक्षाओं को शामिल करेंगी.

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