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बच्चों से संवाद करें अभिभावक

कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले में एक भाई ने मोबाइल के लिए अपनी पंद्रह साल की बहन की हत्या कर दी थी. इस घटना के पीछे यह कारण बताया गया कि अभियुक्त अपने मामा के घर से मोबाइल चुरा कर लाया था. बहन ने इस चोरी का प्रतिरोध किया, तो उसने सोते समय उस पर हथोड़े से हमला कर उसकी जान ले ली. दिल्ली के किशनगढ़ इलाके में अक्तूबर, 2018 में एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या हो गयी थी.

डॉ संजीव राय

शिक्षाविद

sanj.2402@gmail.com

विडंबना मानवीय जीवन की सच्चाई है. यह भी एक विडंबना है कि जिस समय मानवीय सभ्यता के अब तक के इतिहास में सबसे अधिक ‘संवाद’ के साधन उपलब्ध हों, लोग यह शिकायत कर रहे हैं कि उनके घरों में आपसी संवाद कम हो रहा है. मध्यवर्गीय अभिभावकों की यह चिंता है कि उनके किशोर और व्यस्क बच्चे मोबाइल व कंप्यूटर के साथ अधिक समय गुजार रहे हैं और पारिवारिक-सामाजिक समारोहों में जाने से कतरा रहे हैं.

कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले में एक भाई ने मोबाइल के लिए अपनी पंद्रह साल की बहन की हत्या कर दी थी. इस घटना के पीछे यह कारण बताया गया कि अभियुक्त अपने मामा के घर से मोबाइल चुरा कर लाया था. बहन ने इस चोरी का प्रतिरोध किया, तो उसने सोते समय उस पर हथोड़े से हमला कर उसकी जान ले ली. दिल्ली के किशनगढ़ इलाके में अक्तूबर, 2018 में एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या हो गयी थी.

बाद में पता चला कि इसे अंजाम देनेवाला एक उन्नीस साल का लड़का था, जिसने ऑनलाइन गेम खेलने से मना करने पर अपने ही माता-पिता और बहन की हत्या कर दी थी. ये दो उदाहरण अपवाद माने जा सकते हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि युवाओं में ऑनलाइन खेल, गीत -संगीत से लेकर खरीदारी तक का चलन बढ़ता जा रहा है.

अधिकतर लोकप्रिय ऑनलाइन गेम हिंसा पर आधारित हैं और वे युवाओं-किशोरों को एक आभासी दुनिया में ले जाते हैं. बच्चों से लेकर वयस्कों तक मोबाइल-इंटरनेट का अतिशय प्रयोग आज समाज में एक बड़ी चुनौती बन रहा है. इसे देखते हुए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली को इंटरनेट के ‘नशे’ की लतवालों का इलाज करने के लिए एक केंद्र खोलना पड़ा है.

जीवन में इंटरनेट का दखल बढ़ रहा है, लेकिन अधिकांश माता-पिता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि वे अपने बच्चों में मोबाइल-इंटरनेट के प्रति बढ़ते रुझान और ललक को कैसे नियंत्रित करें? चालीस-पचास साल आयु के अभिभावकों का छात्र जीवन उस दौर में गुजरा है, जब टेलीविजन भी मोहल्ले के कुछ घरों में होता था. अस्सी के दशक में जो लोग विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं, वे दूरदर्शन का ‘समाचार’ और ‘चित्रहार’ देखने के लिए छात्रावास के ‘कॉमन रूम’ में जाते थे.

जल्दी जागना विद्यार्थी का लक्षण बताया जाता था, लेकिन अब देर से सोना और देर तक सोना आम होता जा रहा है. इसकी शुरुआत टेलीविजन आने के कुछ वर्षों के बाद ही हो गयी थी. तब युवा गांव में देर तक धारावाहिक और क्रिकेट मैच देखने लगे थे और सुबह जागने का सिलसिला टूटने लगा था. नये डिजिटल माहौल में छात्रों की परंपरागत छवि और दिनचर्या बदल गयी है. लेकिन अनेक माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे भी उन्हीं की तरह का बचपन जियें. तकनीक के दौर में मूल्यों का दायरा एक परंपरागत समाज से आगे बढ़ कर बहुआयामी हो गया है. दुनिया के दूसरे देशों के लोगों के रहन-सहन, सोच-विचार की जानकारी मीडिया के जरिये बच्चों तक पहुंच रही है, तो क्या वह नये बन रहे समाज से अलग रह पायेंगे?

कुछ अभिभावक हाइ स्कूल-इंटरमीडिएट में पढ़नेवाले बच्चों के सोशल मीडिया अकाउंट से लेकर उनकी ऑनलाइन कक्षा में बैठ कर उनकी गतिविधियों को ‘नियंत्रित’ करना चाहते हैं. उनको लगता है कि जब वे बच्चे को अपनी नजरों के सामने ‘टीवी -कंप्यूटर -मोबाइल’ का प्रयोग करने देंगे, तो वे एक अच्छे अभिभावक माने जायेंगे. लेकिन क्या यह संभव है? कोरोना संक्रमण के बाद तो यह साफ हो गया है कि सूचना और संप्रेषण की नयी तकनीक के चलते युवा पीढ़ी के लिए मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, टैबलेट अनिवार्य हो गये हैं.

अब डिजिटल मीडिया का दखल हमारे रोजमर्रा के कारोबार में है. हालात ऐसे हैं कि ड्राइंग रूम में रहनेवाले टीवी से शुरू हुई यात्रा बेड रूम तक पहुंच गयी है और लोगों के पास एक घर में ही कंप्यूटर, टीवी, लैपटॉप, टैबलेट, मोबाइल सभी मीडिया माध्यम उपलब्ध हैं. ऐसी स्थिति में क्या बच्चे को ऑनलाइन गेम, सोशल मीडिया- यूट्यूब, पॉडकास्ट और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म पर जाने से रोका जा सकता है?

इंटरनेट के द्वारा युवाओं की पहुंच पूरी दुनिया में है. उनके पास सूचनाओं की भरमार है. अब उनके पास पीछे जाने के विकल्प बहुत ही सीमित हैं. हां, माता-पिता के पास यह अवसर है कि वे बच्चों के पास उपलब्ध सूचनाओं के साथ अनुभव को जोड़ कर उनसे संवाद करें. जीवन के प्रति एक उदार आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने में अपने बच्चों की मदद करें. यह ध्यान रखना जरूरी है कि बच्चों का ‘स्क्रीन टाइम’ एक तय सीमा में रहे. लेकिन यह तभी होगा, जब अभिभावक स्वयं को भी मोबाइल, टीवी आदि से दूर रखेंगे. उन्हें पहले अपना ‘स्क्रीन टाइम’ कम करना होगा.

खेलकूद, देशाटन जैसी गतिविधियों और ‘सप्ताह में एक दिन बिना गैजेट के’ जैसी कोशिशों से परिवार में संवाद और सहकार बढ़ सकता है. इसके लिए अभिभावकों को समय निकालना होगा. अभिभावकों को यह याद रखना होगा कि इंटरनेट अब हमारे जीवन का हिस्सा है. इसको आप अधिक नियंत्रित नहीं कर सकते. इसके साथ सामंजस्य बैठाना ही समय की मांग है.

Posted By : Sameer Oraon

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