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मुद्दे बनाम मोदी सरकार
रशीद किदवई राजनीतिक टिप्पणीकार उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद भारत के ज्यादातर हिस्से में अब कमल खिल चुका है. देश के लगभग 125 करोड़ लोग भाजपा के उन वादों को याद कर रहे हैं, जो उसने कभी यह कह कर किये थे कि उनकी सरकार आयेगी, तो वह उन वादों को जरूर पूरा करेगी. जिसमें […]
रशीद किदवई
राजनीतिक टिप्पणीकार
उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद भारत के ज्यादातर हिस्से में अब कमल खिल चुका है. देश के लगभग 125 करोड़ लोग भाजपा के उन वादों को याद कर रहे हैं, जो उसने कभी यह कह कर किये थे कि उनकी सरकार आयेगी, तो वह उन वादों को जरूर पूरा करेगी. जिसमें गौ संरक्षण कानून और राममंदिर प्रमुख हैं.
इन दोनों मुद्दों पर किये गये भाजपा के वादे को पूरा करने का समय आ गया है. लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ टकटकी लगा कर देख रहे हैं कि वह भारतीयों की सामूहिक इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए अयोध्या विवाद का शांतिपूर्ण हल निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे और गाै-हत्या पर कड़ी कार्रवाई करेंगे, जिससे देश के हिंदू-मुसलमान शांति के वातावरण में रह सकेंगे.
जिस तरह 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को खत लिख कर गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाने को कहा था. इसी तरह 1991 में उस समय के पीएम चंद्रशेखर और 2002 में अटल बिहारी बाजपेयी ने मंदिर-मसजिद विवाद को सुलझाने के लिए व्यक्तिगत रूप से रुचि लेते हुए इन मुद्दों पर पहल की थी. कुछ इसी तरह पीएम मोदी को भी सामने आकर इन मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करनी होगी.
गौ-रक्षा आजादी के पहले से ही एक विवादास्पद विषय रहा है.गाय के वध को लेकर उस समय के नेताओं- मौलाना अबुल कलाम आजाद, अली ब्रदर्स और अन्य कई मुसलिम नेताओं ने मुसलमानों से खिलाफत आंदोलन के दौरान अपने मन से गौमांस छोड़ने की गुजारिश की थी. यही नहीं, 1952 में जब देश में पहली बार आम चुनाव हुए, तो पंडित जवाहरलाल नेहरू की परंपरागत सीट फूलपुर से स्वामी प्रभुदत्त ब्राह्मचारी ने गौ-रक्षा के मुद्दे पर नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जिसमें उनका समर्थन स्वामी करपात्री महाराज के अखिल भारतीय राम राज्य परिषद् और अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने किया था.
अगले महीने पीएम मोदी के शासन को तीन साल पूरे हो जायेंगे. इन तीन सालों में प्रधानमंत्री की उच्च प्राथमिकता वाले विषयों में गौ-रक्षा भी रहा है. लेकिन, वह गौ-रक्षा पर बोलने से हमेशा कतराते रहे हैं. उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके सियासी मुद्दों में गौ-रक्षा एक अहम मुद्दा है. भाजपा शासित कई राज्यों में गौ-वध की अनुमति है, वहीं दूसरी ओर गौ-रक्षा को लेकर प्रदेशों में गौ-रक्षा समूहों का भी गठन किया गया है, जो गाय के वध पर निगाह रखते तो हैं, पर उनका तरीका हिंसा से इसे रोकना होता है.
इस विषय पर पीएम मोदी अपने विचार लोगों के सामने रख चुके हैं, लेकिन अगर वास्तव में पूरे देश में राष्ट्रव्यापी गौ-वध पर प्रतिबंध प्रधानमंत्री लगाने की मंशा रखते हैं, तो उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में होनेवाली पशुओं की तस्करी और बीफ का निर्यात रोकने पर विचार करना होगा. यह पूरी तरह सच है कि गाय संरक्षण राज्यों का विषय है, पर वर्तमान में कई राज्यों में भाजपा-एनडीए की सरकारें हैं, जहां गौ-वध की अनुमति है, तो कई राज्यों में प्रतिबंध भी है. लेकिन, अब मोदी सरकार को इसका हल सोचना होगा, क्योंकि उसका लोकसभा में भी पूर्ण बहुमत है और 13 राज्यों में भी पूर्ण बहुमत वाली सरकारों के साथ कुछ राज्यों में भी उसके समर्थन से बनी सरकारें हैं.
पिछले साल संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान हजारों साधु दिल्ली में गौ-हत्या पर रोक को लेकर इकट्ठा हुए थे, जिनका उद्देश्य गौ-हत्या के खिलाफ राष्ट्रीय कानून की मांग करना था.
इसके लिए वे संसद का घेराव करने की रणनीति के तहत देश की राजधानी पहुंचे थे, लेकिन इस विषय पर अंतिम क्षणों में साधुओं को कुछ आश्वासन दिया गया और उन्होंने संसद घेराव का अपना निर्णय वापस ले लिया. लेकिन, इसके बाद सवाल यह उठा कि सरकार और साधुओं के बीच ऐसी क्या सहमति बनी कि इतनी जोर-शोर से आंदोलन की तैयारी के बाद साधुओं को उसे वापस लेना पड़ा. यहां ध्यान देनेवाली बात यह है कि 2014 के आम चुनाव में प्रचार के दौरान पीएम मोदी ने भारत में गुलाबी क्रांति यानी मांस निर्यात पर अपने भाषणों में खूब जोर दिया था. जबकि, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उस समय हिंदुत्व और विकास को एक-दूसरे का पूरक बताया था.वही दूसरी ओर, गौ-वध के अलावा मोदी सरकार के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती राममंदिर को लेकर है.
जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर के आपसी समझौते के प्रस्ताव के बाद ज्यादातर युवा मुसलिम इस मुद्दे पर पीएम मोदी की मध्यस्थता चाहते हैं. उनका मानना है कि इस मुद्दे को एक मात्र नरेंद्र मोदी ही शांतिपूर्वक सुलझा सकते हैं, जिसके लिए वह विश्व हिंदू परिषद् और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी मना सकते हैं. जिस तरह अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर वीएचपी और बाबरी मसजिद कमेटी के सदस्यों को बातचीत के लिए एक मेज पर लाने में सफल हुए थे, कुछ इसी तरह से एक फाॅर्मूले के तहत साल 2002 में अटल बिहारी बाजपेयी ने मरहूम काजी मुजाहिद-उल-इस्लाम, जो कि अखिल भारतीय मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष थे, और कांची पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती के बीच एक समझौते के तहत आगे बढ़े थे.
अयोध्या में राममंदिर और गौ-संरक्षण ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर अगर प्रधानमंत्री मोदी कुछ शांतिपूर्ण हल निकालने में सफल होते हैं, तो उनका कद देश ही नहीं, पूरे विश्व में बढ़ेगा. साथ ही देश में अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुसलिमों के दिमाग और दिल जीतने में भी मोदी को सफलता मिलेगी. यही नहीं, उनके नये भारत के निर्माण में मुसलिम युवा मोदी के साथ आकर एक नयी शुरुआत के लिए इससे तैयार होंगे. अब भाजपा की मोदी सरकार के सामने यह अहम सवाल है कि वह इन दोनों मुद्दों पर अपना रूख कब और कैसे अख्तियार करती है जिसकी तरफ पूरा देश एक साथ टकटकी लगाये देख रहा है. और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्या भूमिका होती है?
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