दो सप्ताह में नौसेना से जुड़ी तीसरी दुर्घटना ने देश की रक्षा व्यवस्था के स्वास्थ्य की चिंताजनक तसवीर को पुन: रेखांकित किया है. पिछले सात महीनों में घटी 12 दुर्घटनाओं में 22 लोग मारे जा चुके हैं और कई घायल हुए हैं.
भारतीय नौसेना की शोचनीय दशा का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि सिंधुर- हादसे के बाद नौसेना प्रमुख एडमिरल डीके जोशी ने दुर्घटनाओं की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था. यह भारतीय सैन्य इतिहास की पहली घटना है जब एक प्रमुख ने संस्थागत गिरावट की व्यक्तिगत जिम्मेवारी ली. इस हादसे में मृत लेफ्टिनेंट मनोरंजन कुमार ने पनडुब्बी में बैठने से पूर्व अपने वरिष्ठ अधिकारी से कहा था कि हम एक बम में यात्र कर रहे हैं.
दुर्भाग्यपूर्ण है कि सैन्य-नेतृत्व व सरकार को नौसेना की जर्जर स्थिति की पूरी जानकारी है. यह तब है, जब लगभग तीन दशकों में सैन्य बजट 17 गुना बढ़ कर 13 हजार करोड़ से 2.2 लाख करोड़ हो चुका है. इस अवधि में नौसेना का बजट 38 गुना बढ़ कर 38 हजार करोड़ हो चुका है. बजट की औपचारिक बहसों को छोड़ दें, तो कभी इन खर्चो के हिसाब-किताब पर पारदर्शिता से लेखा-जोखा नहीं होता. उपकरणों और वस्तुओं का नवीनीकरण बरसों से ठप है. निर्माण और मरम्मत में निजी कंपनियों की भागीदारी बढ़ रही है, जिनके कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर ध्यान देने की जरूरत है.
अनेक जहाज व पनडुब्बी परमाणु हथियारों से लैस और परमाणु ऊर्जा से संचालित होते हैं. कभी भी कोई हादसा बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान कर सकता है. देश की सुरक्षा की बड़ी जिम्मेवारी नौसेना की है, क्योंकि हमारी समुद्री सीमा विस्तृत है और अर्थव्यवस्था में समुद्री व्यापार का हिस्सा बहुत बड़ा है. घुसपैठ और तस्करी भी बड़ी समस्या हैं. ऐसे में एक बीमार और ह्रासोन्मुखी नौसेना का होना अत्यंत चिंताजनक है. मंत्रियों और अधिकारियों को स्थिति की गंभीरता को समझते हुए आपात-स्तर पर कदम उठाना चाहिए. नौसेना प्रमुख ने अपनी अंतरात्मा की आवाज तो सुन ली, पर रक्षा मंत्री क्यों चुप हैं? देश को भी सोचने की जरूरत है कि ये हादसे राजनीतिक बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाते? क्यों सुरक्षा से जुड़े इन सवालों पर नेतृत्व का लापरवाह रवैया इस चुनाव में बड़ा मुद्दा नहीं है?