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कश्मीर में पत्थरबाजी का हल

अजय साहनी आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ आये दिन जिस तरह से कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही हैं, उसका कोई आसान हल तो नहीं है, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि कोई हल ही नहीं है. इसका हल तभी होगा, जब हम इसके अंदरूनी हालात को समझेंगे. जब पत्थरबाजी शुरू होने से पहले सैकड़ों […]

अजय साहनी
आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ
आये दिन जिस तरह से कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही हैं, उसका कोई आसान हल तो नहीं है, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि कोई हल ही नहीं है. इसका हल तभी होगा, जब हम इसके अंदरूनी हालात को समझेंगे. जब पत्थरबाजी शुरू होने से पहले सैकड़ों कश्मीरियों को जेल से रिहा किया गया था, उसके बाद दो-तीन के भीतर ही पत्थरबाजी का यह सिलसिला शुरू हो गया. यहां पहली चीज तो यह है कि बहुत से ऐसे पत्थरबाज हैं, जिनकी मजबूरी है पत्थरबाजी, क्योंकि उन सीधे-सादे कश्मीरियों पर अलगाववादियों का दबाव होता है. अगर वे वैसा नहीं करेंगे, तो अलगाववादी ही उन्हें मार डालेंगे.
पत्थर फेंकनेवाले बहुत ज्यादा नहीं हैं. सेना और पुलिस उन पर काबू पा सकती है. सरकार और सेना इस बात पर विचार कर रही है कि पत्थरबाजी की समस्या से निपटने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जाये, ताकि सही-सही बात पता चल सके कि आखिर इन सबके पीछे वे कौन लोग हैं, जिनकी शह पर कश्मीरी युवा पत्थरबाज बन रहे हैं. दूसरी बात यह है कि अगर पत्थरबाजों की तादाद ज्यादा भी हुई, तो भी उससे डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि खतरा इनसे नहीं, बल्कि इनके नेतृत्व से है, जो छिपे तौर पर भयादोहन का षड्यंत्र रच कर युवाओं को पत्थर चलाने के लिए मजबूर करते हैं.
पत्थरबाजी को जारी रखने के लिए यह नेतृत्व कई तरह के तरीके इस्तेमाल करता है. एक तरीका तो सीधे-सीधे पैसा बांटना है और दूसरा है लोगों को डराना और भयादोहन करना. अलगाववादी कभी पैसे बांट कर तो कभी दबाव बना कर कश्मीरी युवाओं का भयादोहन करते हैं कि हम लड़ रहे हैं और तुम लोग घरों में बैठे हो. अलगाववादी कहते हैं कि जाओ लड़ो, नहीं तो हमीं तुम्हें मार देंगे. यह डर पुलिस या सेना से ज्यादा बड़ा डर है, क्योंकि यह घर उनके घर में घुस कर पैदा किया जाता है. और इस तरह ज्यादातर बेगुनाह कश्मीरी दोनों तरफ से पिसते हैं, एक तरफ घर में रहते हैं तो अलगाववादियों के भयादोहन से और दूसरी तरफ बाहर सेना और पुलिस के जवानों से. इस बात से कभी इनकार नहीं किया जा सकता है.
केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, दोनों इस मामले में ढुलमुल रवैया अपनाये चल रही हैं. जब भी कश्मीर में राजनीतिक हल या संवाद की बात होती है, तो कश्मीर में पंचायत से लेकर नगरपालिका तक और राज्य के नेतृत्व से लेकर कश्मीर के सांसदों तक, सभी जनप्रतिनिधि इकट्ठा हो जाते हैं. लेकिन, जब बात कश्मीरियों के साथ संवाद की आती है, तो यह कहा जाने लगता है कि अलगाववादी नेताओं से भी बात होनी चाहिए. मैं पूछता हूं कि क्यों? यह मामला अलगाववादियों का नहीं है, बल्कि कश्मीरी अवाम का है. लेकिन सब कहते हैं कि शांति वार्ता होगी, तो अलगाववादी भी इसमें शामिल होंगे, कश्मीरी अवाम से संवाद पर बात नहीं बनेगी. यही वह ढुलमुल रवैया है, जिसके चलते कश्मीर में शांति स्थापित नहीं हो पाती है.
कश्मीर में अलगाववादी शुरू से ही पाकिस्तान के इशारे पर चलते आये हैं, इस गंठजोड़ को तोड़ना होगा. अलगाववादियों को सारे संसाधन पाकिस्तान ही मुहैया कराता है, नहीं तो ये किसी काम के नहीं हैं. सेना को चाहिए कि ड्रोन जैसी तकनीक के इस्तेमाल से जड़ों तक पहुंचे और नेतृत्वकारी तत्वों को गिरफ्तार करे. न सिर्फ गिरफ्तार करे, बल्कि उन्हें तब तक न रिहा करे, जब तक पत्थरबाजी की जड़ों तक न पहुंच जाये. अलगाववादी नेतृत्व का खत्म होना बहुत जरूरी है, नहीं तो ये निर्दोष कश्मीरियों का भयादोहन कर उन्हें मौत के मुंह में भेजते रहेंगे. अलगाववादी नेतृत्व की गिरफ्तारी और उसे खत्म करने के बाद पत्थरबाज खुद ही पस्त हो जायेंगे और इस मसले का हल निकालने में सारे निर्दोष कश्मीरी भारतीय सेना और पुलिस की भी मदद करेंगे.
इसके बाद की प्रक्रिया यह होनी चाहिए कि अलगाववादियों को मिलनेवाले पाकिस्तान से पैसे को रोकने के लिए उन पर कानूनी कार्रवाई हो और उन्हें जेल भेजा जाये. हमारी राजनीति अपने कानूनी ताकत को इस्तेमाल ही नहीं कर रही है. दरअसल, जब से कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की सरकार और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, तब से इनकी राजनीति सिर्फ सांप्रदायिक और बांटनेवाली ही राजनीति रही है. पीडीपी अलगाववादियों के प्रति नरम रुख अपनाते हुए मुसलमानों की बात करती है और इधर केंद्र में जम्मू की पार्टियां हिंदू-हिंदू करती रहती हैं. इस तरह से सारी पार्टियां आग लगाती फिर रही हैं और फिर उसका हल भी तलाश रही हैं. कश्मीर में साल 2012 में सिर्फ 117 लोग मारे गये थे, जबकि 2001 में साढ़े चार हजार लोग मारे गये थे. बीते एक दशक में कश्मीर के हालात काफी सुधर गये थे, लेकिन इस हालात का हमारे नेताओं ने कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठाया और आज आलम यह है कि वहां पत्थरबाजी एक सिरदर्द बनी हुई है.

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