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विकास की परिभाषा में बच्चे कहां!
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया हमारा समाज एक ऐसी दिशा की ओर बेलगाम अग्रसर होता जा रहा है, जहां सब कुछ या तो बहुसंख्यक के लिए ही हो रहा है, या आवाज उठा सकनेवालों के लिए ही हिस्सेदारी बच रही है. जो मूक हैं, या मासूम हैं, उनके लिए कुछ […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
हमारा समाज एक ऐसी दिशा की ओर बेलगाम अग्रसर होता जा रहा है, जहां सब कुछ या तो बहुसंख्यक के लिए ही हो रहा है, या आवाज उठा सकनेवालों के लिए ही हिस्सेदारी बच रही है. जो मूक हैं, या मासूम हैं, उनके लिए कुछ भी नहीं बच रहा है. आज प्रकृति-जीव और बच्चे सामूहिक संहार के शिकार हो रहे हैं, क्योंकि वे अपनी भाषा मनुष्यों को समझा नहीं सकते. वे आज के कथित विकास की परिभाषा से बाहर हैं. यह सब तब हो रहा है, जब मनुष्य जाति लगातार लोकतांत्रिक होने का दावा कर रही है. इस अवधारणा पर गंभीरता से विचार करने से यह सवाल खड़ा होता है कि क्या जो वोट करने के अधिकारी हैं, केवल उन्हीं के लिए ही घोषणाएं होंगी?
जितनी तेजी से हम लोकतांत्रिक होने का दावा कर रहे हैं, उतनी ही तेजी से ‘लोकतंत्र’ का अभिप्राय ‘वोट’ देने तक सीमित होता जा रहा है. और जो भी इस ‘वोट’ देने की परिधि से बाहर हैं, उनकी सुध लेनेवाला इस व्यवस्था में कोई दिखाई नहीं देता है. हम जिस बेहतर समाज की कल्पना करते हैं, उसकी रीढ़ प्रकृति और हमारे बच्चे ही हैं, लेकिन इन दोनों को लेकर हमारी राजनीति कितनी गंभीर है, यह कहने की जरूरत नहीं है.
बच्चों को लेकर अक्सर हम खास तरह की रूमानियत में रहते हैं. जैसे, बच्चे ईश्वर के प्रतिरूप होते हैं, या ईश्वर के भेजे दूत होते हैं, इत्यादि. लेकिन बच्चों को लेकर दो विभाजक पक्ष स्पष्ट हैं, जिसे हमें ठीक से समझना चाहिए. यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि वर्ग और वर्ण विभाजित समाज में होने की वजह से बच्चे भी इस विभाजन से मुक्त नहीं हैं.
यानी, एक दुनिया ऐसी है, जहां बच्चे जीवन की तमाम बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं. वहीं दूसरी दुनिया ऐसी है, जहां बच्चों को बुनियादी जरूरतों की चिंता नहीं है. उनके लिए खेल-खिलौने, सुख सुविधाएं सब कुछ हैं, इसके बावजूद वे अकेलापन और अवसाद झेलने को विवश हैं. दोनों दुनिया में एक समान बात यह है कि दोनों जगह बच्चों की मासूमियत खतरे में है. वर्ग-वर्ण विभाजन और समाज के लाभ और मुनाफे के नजरिये ने इन परिस्थितियों को जन्म दिया है.
यूनिसेफ का आंकड़ा 2016 कहता है कि 2030 तक दुनिया भर में 16.7 करोड़ बच्चे गरीबी की गिरफ्त में होंगे और उनमें से करीब 6.9 करोड़ बच्चों की मौत गरीबी से ही होगी. खास तौर पर तीसरी दुनिया के देशों में यह समस्या ज्यादा जटिल है. हमारा देश भी इससे मुक्त नहीं है.
दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूरी वाले देशों की सूची में हमारा देश भी शामिल है. निस्संदेह शिक्षा गरीबी दूर करने का सबसे मजबूत साधन है. लेकिन, गरीबी की वजह से बच्चे शिक्षा तक पहुंच नहीं पाते हैं, यह बहुत बड़ी बिडंबना है. यह ऐसी बिडंबना है, जिसका समाधान सिर्फ व्यवस्था के जरिये ही किया जा सकता है. यानी बिना समाजवादी शिक्षा के इसे दूर नहीं किया जा सकता है. आज हमारे देश की शिक्षानीति में निवेश और निजीकरण की छूट ने इस बिडंबना को और मजबूत किया है. बाजार में शिक्षा को उतारते ही शिक्षा गरीबों से और दूर हो गयी है. यह ऐसा विषबेल है, जो हर पीढ़ी में बाल मजदूरों को ही पैदा करेगा. यूनिसेफ का ही कहना है कि शिक्षा का मतलब गुणवत्ता युक्त, तकनीकों-कौशलों और सुविधाओं से युक्त शिक्षा है. एक ओर हमारे देश में अधिकतम बच्चों की पहुंच सरकारी शिक्षण संस्थाओं तक ही है, लेकिन सरकारी शिक्षा से सुविधाएं गायब हैं.
वहीं दूसरी ओर हमारे देश के अधिकांश बच्चे पेंसिल से ज्यादा पेट की समस्या से जूझ रहे हैं. यह ऐसी समस्या है, जिसके सामने हर अभिभावक विवश है. हिंदी के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की एक कविता की पंक्ति है- ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं/हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह/ भयानक है इसे विवरण की तरह लिखना/लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह…’ दुखद तो यह है कि हमारे देश की राजनीति और हमारा समाज इसे सवाल की तरह नहीं, इसे अपनी ग्लानि दूर करने के लिए पढ़ता है.
इसके साथ ही बहुत बड़ी चुनौती शहरों और महानगरों के उन बच्चों के साथ जुड़ी है, जो अपने सपनों और अपनी कल्पना की दुनिया से वंचित हैं. महानगर तेजी से बढ़ तो रहे हैं, उनकी चकाचौंध तो बढ़ रही है, लेकिन उनका आंगन और मैदान पूरी तरह सिमट चुका है. आज बच्चों के लिए शहरों में इतनी जगह ही नहीं है कि वे खेल-खेल में सामाजिकता की बात स्वत: सीख सकें. इस बदलती हुई परिस्थिति को बाजार ने अपने पाले में झटक लिया है.
आज बच्चे कार्टून चैनलों या रियलिटी शो की गिरफ्त में हैं. कार्टून चैनलों में आनेवाले ज्यादातर एपिसोड या तो हिंसक हैं या अतार्किक और अंधविश्वास पैदा करनेवाले हैं. आज बच्चों के ‘हीरो’ वास्तविक दुनिया के ‘हीरो’ नहीं, बल्कि कार्टूनों के ‘हीरो’ हैं. इस बदली हुई परिस्थिति में बच्चों के लिए न तो सार्थक सिनेमा है, न ही साहित्य. इससे दुखद और क्या हो सकता है कि आज बच्चों की जुबान में कोई बालगीत है ही नहीं. साहित्य के नाम पर कुछ अपवादों को छोड़ कर राज कॉमिक्स का डोगा और नागराज सीरीज ही है. आज बच्चों को मानसिक संबल देने के लिए ऐसा कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक और कलात्मक आधार तैयार नहीं हो रहा है, जिससे बच्चे प्रतिकूल परिस्थितियों का समाना कर सकें. इसका बुरा असर यह हुआ है कि बच्चों में अवसाद और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं.
हम विकास की ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हैं, जहां बच्चे न हमारी पीठ पर हैं और न ही हमारी गोद में हैं. इस परिस्थिति का अनिवार्य संबंध हमारी व्यवस्था और उसके द्वारा स्वीकृत जीवनशैली से है. पूंजीवाद ने वस्तुओं के संग्रह का जो लालच हमें दिया है, उसे हम अपने बच्चों की कीमत पर हासिल करने के लिए लालायित हैं.
हमारे देश की कथित लोकतांत्रिक राजनीति के एजेंडे में न कभी बच्चे रहे हैं और न ही उनका बचपना रहा है. दरअसल, हमारे देश की राजनीति बच्चों को ‘खिचड़ी’ खिलाने का प्रलोभन देकर अपना भविष्य सुरक्षित करनेवाली राजनीति है, जहां बच्चों के अभिभावकों का ‘वोट’ लेकर खुद ‘मलाई’ खाने की प्रतिस्पर्धा होती है.
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