।। सुभाष चंद्र कुशवाहा।।
(साहित्यकार)
भारतीय राजनीति में उल्का की भांति प्रकट हुई ‘आप’ की सत्ता सिंहासन तक पहुंचने की गाथा भ्रष्टाचार के प्रति जनमानस में व्याप्त आक्रोश और राजनीति की जन से दूरी की पृष्ठिभूमि में लिखी गयी थी. ‘आप’ के अकस्मात राजनीतिक आकाश पर छा जाने के पीछे वैचारिक आंदोलनों की विफलता थी. इसलिए वामपंथियों की खूब आलोचना हुई. होनी भी चाहिए. ‘आप’ के उदय का रास्ता वाम की विफलता से होकर गुजरता है. जिस मुद्दे को अन्ना या केजरीवाल ने लपक लिया था, उसे हथियार बनाने में वामपंथ चूक गया था. केजरीवाल ने वाम के तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर, एक जरूरी मुद्दे के सहारे, उनकी जमीन हथिया ली. कांग्रेसी और भाजपाई राजनीति की दोगलई से जनता ऊब चुकी थी. सो ‘आप’ में विकल्प दिखते ही उधर लपक पड़ी. पूंजीपतियों और उनकी संरक्षक तमाम पार्टियों के ताम-झाम, सुख और संपन्नता के विपरीत, ‘आप’ की सादगी, उसकी टोपी, नारों और तिरंगा झंडा थाम कर चलने की नीति ने जंतर-मंतर पर भीड़ बढ़ा दी. जनता को अन्ना और केजरीवाल से इतनी बड़ी उम्मीद दिखी कि तमाम समीक्षक और राजनीतिक पुरोधा चकित रह गये.
लेकिन ऐसी अपेक्षा में ‘आप’ को बड़े बदलाव के लिए सतर्कता से कदम बढ़ाने चाहिए थे. खेद है कि ऐसा नहीं हुआ. बिजली-पानी और कानून-व्यवस्था को हड़बड़ी में दुरुस्त करने की कवायद तेज हुई. व्यवस्था परिवर्तन के कुछ बुनियादी सिद्धांत होते हैं. अगर आप किसी नये संविधान या नयी व्यवस्था का खाका तैयार करने की स्थिति में नहीं हंै, तो आपको परंपरागत व्यवस्था को बदलने के लिए एक-एक कदम सोच-समझ कर उठाने चाहिए. कोशिश की जानी चाहिए कि जब तक कोई बेहतर तंत्र विकसित न कर लिया जाये, पुराने को अपने विरुद्ध इस हद तक न भड़काया जाये कि वह घातक बन जाये. ‘आप’ द्वारा फटाफट शैली में अपनायी गयी नीतियां, विरोधियों को कुप्रचार का मौका दे गयीं. यह बात सही है कि दिल्ली के कांग्रेसी और भाजपाई, ‘आप’ को बरबाद करने की मानसिकता से काम कर रहे थे. ऐसे में ‘आप’ नेताओं को चाहिए था कि खबरों की सुर्खियां बनने के बजाय, गोपनीय ढंग से अपनी नीतियों को अमली जामा पहनाने का काम करते. पुलिस तंत्र में व्याप्त खोट को उससे सीधे-सीधे लड़ कर दूर नहीं किया जा सकता था. बिजली वितरण की किसी बेहतर व्यवस्था को कार्यरूप देने से पहले ही वितरण कंपनियों से झगड़ा मोल लेने से कुछ हासिल नहीं होना था. जनलोकपाल बिल के नाम पर सरकार कुर्बान करने से बेहतर होता, उसे जन सामान्य के बीच जारी कर बहस चलाते और उसकी अच्छाइयों को साफ-साफ जनता के बीच ले जाते. भ्रष्टाचार के व्यवस्था जनित चरित्र पर भी बहस चलाने की जरूरत थी. बताने की जरूरत थी कि आज की व्यवस्था के कोख से ही भ्रष्टाचार पैदा हो रहा है. इसे फटाफट शैली से नहीं बदला जा सकता. इसके लिए लंबी व वैचारिक लड़ाई लड़नी होगी.
कुछ लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल ने सत्ता त्याग कर उसी लंबी वैचारिक लड़ाई का मन बनाया है. लेकिन नहीं. यह वैचारिकी ‘बेटे की कसम’ खाने या ‘भगवान भरोसे’ नहीं आनेवाली. यह संघर्षो के बीच पैदा होती है. इस वैचारिकी का बेहतर रास्ता तब निकलता, जब वे सत्ता से दूर थे. जब सत्ता में आ चुके थे, तब सत्ता के तौर-तरीकों से आंदोलन विकसित करना चाहिए था. भारतीय संसदीय प्रणाली, राज्य और संघ के बीच सत्ता विकेंद्रीकरण के द्वंद्व को उभारते हुए यह संदेश देने का प्रयास करना चाहिए था कि एक बेहतर जनलोकपाल के रास्ते में कौन-कौन रोड़े अटका रहे हैं और क्यों? जनलोकपाल के बहाने भारतीय सत्ता सिंहासन के वर्ग चरित्र का परदाफास करते हुए, एक लंबे आंदोलन की बेहतर पृष्ठभूमि तैयार की जा सकती थी. फिलहाल वह अध्याय समाप्त हो चुका है. दिल्ली राष्ट्रपति शासन के हवाले है. आंदोलन में शामिल एक तबका ठगा महसूस कर रहा है. उसे लग रहा है कि जब जनता से पूछ कर सरकार बनायी थी, तो बिना पूछे अलग होने का क्या मतलब?
केजरीवाल एक बार फिर सड़क पर हैं. लोकसभा चुनाव की तैयारी में हैं. ऐसे में उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को वैचारिक स्वरूप देना चाहिए. अन्यथा आगे फिर फिसलन संभव है और वह फिसलन लंबे समय तक जनआंदोलनों के उभार को दबा देगा, जैसा कि जेपी आंदोलन के बाद हुआ था. पहले ‘आप’ के व्यक्तिवादी स्वरूप को बदलना होगा, तभी केजरीवाल दूसरी पार्टियों से भिन्न नीति बना पायेंगे. जनलोकपाल के बहाने सत्ता से हटने का निर्णय भी सामूहिक फैसले के बाद आता तो बेहतर होता. जनलोकपाल के अलावा दूसरे तमाम जनपक्षधर मुद्दे ऐसे थे, जिन पर काम करके बेहतर प्रशासन दिया जा सकता था. अब यह निर्णय जनलोकपाल के बहाने शहीद होने का था या चुनावी समर में लाभ कमाने का उतावलापन, इसका फैसला भविष्य ही करेगा.