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ताकि लड़कियां हों लीडर
सुजाता युवा कवि एवं लेखिका अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव और उसमें भी डोनाल्ड ट्रंप की जीत. इसे राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर हिलेरी क्लिंटन की हार भी कही जा सकती है. राजनीतिज्ञ इसकी बारीकियों को बता सकते हैं और आनेवाले दिनों […]
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव और उसमें भी डोनाल्ड ट्रंप की जीत. इसे राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर हिलेरी क्लिंटन की हार भी कही जा सकती है. राजनीतिज्ञ इसकी बारीकियों को बता सकते हैं और आनेवाले दिनों में विश्व राजनीति व अर्थव्यवस्था से जुड़ी भविष्यवाणियां भी कर सकते हैं. राष्ट्रपति के तौर पर नहीं, स्त्री के तौर पर हिलेरी की हार पर कुछ बातें करना जरूरी है, क्योंकि यह किसी एक चुनाव के साथ खत्म हो जानेवाली बात नहीं है.
लगभग ढाई सौ वर्ष की आजादी में अमेरिका ने कई राष्ट्रपति पाये, लेकिन एक भी स्त्री उस सर्वोच्च पद तक नहीं पहुंच सकी. हम आजादी की बात करते हैं, तो अक्सर अमेरिका एक आदर्श की तरह सामने आ जाता है. भारतीय मुख्यधारा से अमेरिकी मुख्यधारा में पहुंच जाने का ख्वाब भारतीय मध्यवर्ग का ही नहीं, एथनिक अस्मिताओं का भी स्वप्न रहा है. जब सारा विश्व हिलेरी के रूप में अमेरिका की पहली राष्ट्रपति का इंतजार कर रहा था और यह लिखा जानेवाला था कि विश्व में अगुआ राष्ट्र सच में अगुआ है, स्त्री-सशक्तीकरण का भी. हम अचानक नाउम्मीद हो गये.
बहुत लोगों ने कहा कि इसे जबरन जेंडर का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. राष्ट्रपति पद योग्यता का मुद्दा है जेंडर का नहीं. यह उम्मीद बहुत अवास्तविक होती कि अमेरिका के श्वेत पुरुष हिलेरी के लिए वोट करें, लेकिन अमेिरका की कॉलेज जानेवाली श्वेत महिलाएं और अन्य अश्वेत व लैटिन अमेरिकी अस्मिताओं ने हिलेरी में आस्था दिखायी. वे सभी अमेरिकी श्वेत महिलाएं, जिन्होंने कॉलेज की पढ़ाई नहीं की, वे ट्रंप को वोट कर आयीं; महिलाओं के लिए भद्दी-वाहियात बातें कहनेवाले ट्रंप को. एक स्त्री-विरोधी व्यक्ति को चुन लेना क्या उन स्त्रियों का आत्मघृणा की गुलाम मानसिकता पर ठप्पा लगाने जैसा नहीं था? अपने शोषक की शक्ति से प्रभावित हो स्त्रियां आत्मविस्मृति की, अस्मिताहीन स्थिति की ओर जाती हैं.
अगर यह जेंडर का नहीं योग्यता का सवाल है और तथ्यमुक्त होकर यह मान भी लिया जाये कि अमेरिकी राजनीति में एक भी स्त्री राष्ट्रपति पद की योग्य उम्मीदवार नहीं है, तो भी मैं सवाल करना चाहूंगी कि महान अमेरिका ढाई सौ वर्षों में ऐसी योग्य स्त्रियां क्यों नहीं बना पाया? डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों के पास खड़े कर सकने के लिए दो स्त्री-उम्मीदवार क्यों नहीं हो सकते थे?
यह स्त्री के योग्य या अयोग्य होने का सवाल नहीं है, ऐसा इसलिए है कि राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. अमेरिका इस मायने में अरब देशों से बहुत ऊपर, बहुत अंतर पर नहीं है. बराक ओबामा के प्रशासन में ही सिर्फ सात महिलाएं कैबिनेट में या कैबिनेट-स्तर के पदों पर हैं.
अमेरिका को एक मर्दवादी देश कहने की मुझे एकदम जल्दी नहीं है. इसके लिए आराम से विविध शोध करके अन्य आयामों पर विस्तृत चर्चा की जा सकती है. तमाम शोध-पत्र और आंकड़े उपलब्ध हैं.
सोचने की बात यह है कि राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व इतना कम है क्यों? अमेरिका में स्त्रियों के लिए मताधिकार का सवाल 1840 में उठा था. एक लंबे संघर्ष के बाद 1920 में अंतत: यह अधिकार स्त्रियों को मिला और एक नागरिक के तौर पर जेंडर समानता की जंग जीती गयी. सुसन बी एंथनी और लूसी स्टोन, जो इस आंदोलन की मुख्य नेता थीं, यह भुगत चुकी थीं कि स्त्रियों के सार्वजनिक संभाषण और व्याख्यानों को समाज खराब नजर से देखता था, उन्हें समाज का दुश्मन मान कर अपमानित किया जाता था.
यह एक ‘कॉमन सेंस ’ है कि राजनीति गंदी जगह है और महिलाएं ऐसी गंदी जगह नहीं जातीं. लेकिन सोचने की बात यह है कि ‘कॉमन सेंस’ की निर्मिति भी तो किन्ही विचारधाराओं के तहत ही होती है. तब हम समझ सकते हैं कि स्त्री-मताधिकार आंदोलन के समय जो समूह उसके खिलाफ बने, उन्होंने क्यों इस बात पर दबाव दिया कि स्त्रियों का काम घर-बार तक सीमित है, मताधिकार मिलने से वे अपनी पवित्रता खो देंगी और इससे घर टूटने लगेंगे. ऐसी ‘कॉमन सेंस’ मासूम और अ-राजनीतिक नहीं मानी जा सकती.
हमने समाज के रूप में स्त्रियों के लिए स्वाभाविक तौर पर नेता बनने के गुणों के विकसित होने के लिए कभी माहौल नहीं बनाया. हमारे यहां भी मोहल्लेबाजी में वही स्त्री आगे रही, जिसके पास अड़ोस-पड़ोस की घरेलू सूचनाओं का भंडार होता था और जो स्त्रियों को स्त्रियों की हद में रहना सिखा सकती थीं.
अपने समुदाय के लिए, अपने परिवेश, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और सभाओं में बोलनेवाली स्त्रियों को न केवल पुरुषों ने, बल्कि पितृसत्ता समर्थक स्त्रियों ने भी घर-तोड़नेवाली और अनैतिक स्त्रियां ही माना. इस तरह हमने नेता के तौर पर स्त्रियों को तैयार करने के मौके खत्म कर दिये. परोक्ष रूप से इंदिरा गांधी के जीवन से प्रभावित फिल्म ‘आंधी’ में नेता का कैरियर अपनानेवाली अपनी बेटी को घर-परिवार की तरफ झुकते देख जब पिता कहता है कि पढ़-लिख कर भी तुमने वही किया, तो क्या फायदा हुआ तुम्हें विदेश भेजने का. उस वक्त यानी 1975 में ही नहीं, आज भी गृहस्थी की ओर लौटनेवाली लड़की को कैरियर की तरफ देखने को प्रेरित करता पिता समाज में इज्जत कमानेवाला पात्र नहीं हो सकेगा. आखिर राजनीति एक खराब चीज है. खराब चीजें सिर्फ पुरुषों के लिए हैं.
होना तो यह चाहिए कि लड़कियों में बचपन से ही नेतृत्व गुणों को विकसित होने देने के लिए माहौल बने, ताकि वे अपने लिए, अपने समुदाय, साथी स्त्रियों के लिए, उनके अधिकारों के लिए खड़े होना और लड़ना सीख सकें. सभाओं में बुलंद आवाज में बोल सकना, निर्णय लेने की क्षमता, दूसरों को प्रेरित कर सकने की योग्यता लड़कियों में विकसित करने पर अलग से ध्यान देने की जरूरत है.
स्कूल में महिला राजनीतिज्ञों को बुला कर उनके साथ बातचीत के सेशन रख सकते हैं, ताकि लड़के-लड़कियां जान सकें कि राजनीति सिर्फ पुरुषों का इलाका नहीं है. राजनीतिक पद पर होने या सार्वजनिक जीवन में आने पर स्त्री को किन जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है और वह कैसे उनसे निबट सकती है, उसे किस तरह फैसले करने चाहिए, इस पर लेक्चर, वर्कशॉप कराये जा सकते हैं. आज स्त्रियों की राजनीतिक प्रतिभागिता को बढ़ाने की सख्त जरूरत है.
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