।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
फब्तियां कसने से लेकर यौन अपराध तक, देश में बेटियों के साथ जो हरकतें रोज होती हैं, उससे बेटियों का जीना दूभर हुआ है. कानून चाहे कितने नये और कड़े हों, कुकृत्य के बाद सजा देता है. अपराधी चाहे नया हो या शातिर, मान कर चलता है कि कानून की नजरों से बच जायेगा. बचता नहीं है, फंसता ही है, पर समाज के दामन को दाग लगते जाते हैं. समस्या विकराल है और समाधानों का अकाल है.
पंजाब की अकाली सरकार ने ऐसा समाधान निकाला है, जो समस्या से ज्यादा विकराल है. शिक्षा मंत्री सिकंदर सिंह मलूका का फरमान है कि लड़कियों के स्कूल में पुरुष नहीं पढ़ायेंगे. ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी. मांड़ के साथ भात भी नाले में. अंदर का अंधेरा दिख गया उजाले में. मलूका ने साबित कर दिया कि वह प्रथम श्रेणी के मूढ़ हैं. शिक्षा मंत्री का आदेश दोषी या दोष को दूर नहीं करता, बल्कि सभी पुरुष शिक्षकों का अपमान करता है. सब को सड़कछाप, आवारा साबित करने की कोशिश करता है. मान लिया जाये कि कुछ ऐसे भी शिक्षक होंगे जिनके मस्तिष्क में कीड़े पल रहे होंगे. तो भी पुरुष जो शोषक होने की संभावना रखते हैं, उन्हें संभावित पीड़ितों से दूर रख कर वह उनके कीड़े दूर नहीं कर सकते. कीटाणुनाशक कीड़े का तात्कालिक उपचार है. सही उपचार छिड़काव नहीं, स्वच्छता है. और सफाई घर से शुरू होती है. इस तरह का समाधान सड़क का कचरा घर में छुपाने का इंतजाम है.
समस्या महिलाओं की नहीं, पुरुषों की है. बेटियों की नहीं, बेटों की है. दोष उनका है जो पीड़ा देते हैं, उनका नहीं जो पीड़ित हैं. मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास. जो समस्या घर की है, उसका समाधान स्कूलों में, दफ्तरों में, सड़कों, बाजारों में ढूंढ़ रहे हैं. जिन घरों में बेटों और बेटियों में मां-बाप फर्क करते हैं, वहां बेटे को किशोरावस्था में ही पता चल जाता है कि वह स्पेशल है. उसका ओहदा बड़ा है. उसकी सौ गलतियां माफ. उसे घर का कोई काम नहीं करना पड़ता. बेटी को बाहर का कोई काम नहीं करना पड़ता. वहीं से उसके किशोर मन में यह भावना घर कर जाती है कि लड़की का बाहर होना असामान्य है. लड़कियां दूसरे तरह से स्पेशल बना दी जाती हैं. उन्हें घर की इज्जत करार दे दिया जाता है. ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ का घोर अनर्थ हमने ऐसे निकाला कि नारी को देवी बना दिया. श्लोक भले वैदिक हों पर यह षड़यंत्र वैदिक नहीं, आधुनिक है. देवी का स्थान मंदिर में. देवियां तो पूजाघर में ही अच्छी लगती हैं, निकलती तो सिर्फ पर्व-त्यौहार में या तो फिर विसर्जन के वक्त. दुर्गा राक्षसों की विनाशकारिणी है फिर भी धनम देहि, जयम देहि, पुत्रम देहि. मां से यह मांगना कि मां तुम खुद मत आना. पुत्रम देहि. भले ही राक्षस आ जाये. हर साल नवमी में आपको बलि चढ़ायेंगे. दुगार्पूजा के पंडाल में माता के सामने खड़ा लड़का जब पुत्रम देहि, का जाप सुनता है, तो उसे एहसास होता है कि वह मुंहमांगी दुआ है और उसकी बहन अनसुनी फरियाद. आपका क्या होगा जनाबे आली.
बहना घर का गहना बन जाती है. बेशकीमती जेवर. निकले तो किसी विशेष अवसर पर ही. लड़कियों की सीमाएं निर्धारित कर दी जाती हैं. बेटे को सिखाते हैं कि मां, बहन और परिवार के बड़ों की इज्जत करो. वह मां-बहन की इज्जत करता है, बड़ों की भी. उसे यह नहीं सिखाया जाता कि सबकी इज्जत करो. रिक्शा खींचनेवाले की भी, घर के नौकर की भी, कचरा बीननेवाले की भी. जब हम किसी जानवर या पौधे से भी बदतमीजी की अनदेखी करते हैं, तो बच्चे का हौसला बढ़ता है. वह बड़ा होता है तो किसी राहचलते भिखारी पर ताने कसता है. अगली बार किसी राह चलती लड़की पर. जो लड़का समाज के खींचे गये लक्ष्मणरेखा को जान जाता है, वह लड़कियों को उस हद के बाहर देखता है, तो अपनी हद भूल जाता है. फिर उस के लिए सभी रेखाएं धुंधली हो जाती हैं. धंसता जाता है, हमारे सड़कछाप आदर्शो के दलदल में.
गाय हमारी माता है और सच में हमको कुछ नहीं आता है. लोकगीतों के ‘मैं तो बाबुल तोरे खूंटे की गाय’ का वर्णन बहुत गंभीरता से लिया जाता है. अगर बेटी गाय है तो बेटा बैल होगा. खूंटा तोड़ गया तो छुट्टा सांड भी हो सकता है. किसी लड़की के साथ ओछापन या दुष्कर्म हुआ तो ओछा और पापी कौन? अपराध करनेवाला या अपराध की शिकार? पौधे को कीड़ा लगे तो कीड़े का इलाज हो, पौधे को पानी और धूप चाहिए. पौधा को हम पोसते हैं, तो पौधा हमें पौष्टिक फल देता है. बेटी ही घर की इज्जत नहीं. बेटा भी घर की इज्जत है. असल में दोनों आपकी इज्जत नहीं, दोनों आपकी संतान हैं. आपकी इज्जत आप हैं. वक्त आ गया है, समाज बेटियों की खैर मनाना बंद करे. बेटों की चिंता करे. माननीय मलूका के ऊलजलूल समाधान समाधान नहीं, समस्या हैं.