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राजनीतिक विचारधारा का सवाल

।। रविभूषण ।। (वरिष्ठ साहित्यकार) जिन औपनिवेशिक देशों ने राजनीतिक स्वाधीनता को पूर्व स्वाधीनता माना, उन देशों में आज समस्याएं कम नहीं हैं. भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में अनेक वर्गो, समूहों की भागीदारी थी, राष्ट्रीय चेतना थी. इस राष्ट्रीय चेतना के विकास-उन्नयन में बौद्धिक चेतना भी थी. कई प्रकार के विचार-चिंतन थे. राष्ट्रवादी लोगों […]

।। रविभूषण ।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

जिन औपनिवेशिक देशों ने राजनीतिक स्वाधीनता को पूर्व स्वाधीनता माना, उन देशों में आज समस्याएं कम नहीं हैं. भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में अनेक वर्गो, समूहों की भागीदारी थी, राष्ट्रीय चेतना थी. इस राष्ट्रीय चेतना के विकास-उन्नयन में बौद्धिक चेतना भी थी. कई प्रकार के विचार-चिंतन थे. राष्ट्रवादी लोगों की दृष्टि संकीर्ण-संकुचित नहीं थी. गांधी का विचार-दर्शन गांधीवाद कहलाया. अंबेडकर के चिंतन को बाद में अंबेडकरवाद (कम ही सही) कहा गया और नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव के विचार समाजवादी कहलाये. मार्क्‍सवादी विचारधारा भी प्रभाव में थी. उस दौर में सांप्रदायिक शक्तियां भी थीं. देश का विभाजन इसी सांप्रदायिक सोच का प्रतिफलन था.

किसी भी राजनीतिक दल के लिए विचारधारा का सवाल सर्वोपरि है. आज भारत में राजनीतिक दल विचारधारा से परे हैं. कांग्रेस गांधी-नेहरू के विचारों से दूर जा चुकी है. वामपंथी दल विचारधारा से जुड़े होने के बाद भी फिलहाल भारतीय राजनीति में प्रमुख नहीं हैं. समाजवादी कई हिस्सों/खेमों में बंट चुके हैं. आजादी के पहले गांधी-नेहरू के विचारों में भिन्नता आ गयी थी. सत्ता-प्राप्ति के बाद विचारधारा का संकट बढ़ता है. आंदोलन के समय जो विचारधारा प्रमुख होती है, सत्ता-प्राप्ति के बाद उसमें शिथिलता आती है. पचास के दशक से नब्बे के दशक तक भारत के राजनीतिक दल टूट और विघटन की प्रक्रिया से गुजरते रहे हैं. राजनीति में अवसरवाद बढ़ा है. आज सभी दल- राष्ट्रीय और क्षेत्रीय- अवसरवादी हैं. चुनावी गणित को ध्यान में रख कर राजनीति की वास्तविक दिशा तय होती है. संबंधवाद, वंशवाद, अवसरवाद राजनीतिक विचारधारा का नाश करते हैं. भारत का प्राय: प्रत्येक दल विघटित हुआ है. तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) कांग्रेस से निकली हुई पार्टियां हैं, जिनका अपना कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है. तृणमूल कांग्रेस ने तीस वर्ष से अधिक की वामपंथी सरकार को बिना किसी वैचारिक-सैद्धांतिक आधार के शिकस्त दी. दिल्ली में नवजात दल ‘आप’ ने कांग्रेस को सत्ताच्युत किया. प्रभात पटनायक ने पिछले महीने अपने एक लेख में ‘आप’ में किसी सुसंगत विचारधारा के न होने की बात कही है.

भारत की राजनीति में आज जिस मध्यवर्ग और युवा वर्ग की बात की जाती है, वह राजनीतिक दलों का एक नया वोट बैंक है. आज राजनीतिज्ञों का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना है. आम आदमी पार्टी में समाज के सभी तबकों के लोग शामिल हो चुके हैं. भारतीय मध्यवर्ग बहुत हद तक अपनी जड़ों से विछिन्न है. मीडिया में गांव-कस्बे लगभग नदारद हैं. मध्यवर्गीय राजनीति की अलग से कोई विचारधारा नहीं है. उसमें सभी के प्रकार के समूह हैं. आम आदमी पार्टी में आम आदमी की कम उपस्थिति है. भारत की सत्तर प्रतिशत जनता आज भी गांवों में रहती है, जिसकी चिंता कम राजनीतिक दलों को है.

स्वतंत्र भारत में राजनीतिक दल निरंतर विचारधारा विमुख होते गये. उनका ध्यान चुनाव पर केंद्रित रहा और चुनाव का विचारधारा से संबंध नहीं रहा. लोहिया और जयप्रकाश नारायण का मुख्य विरोध नेहरू और इंदिरा गांधी से था. उनका वैचारिक आधार क्रमश: क्षीण होता गया. जहां तक राजनीतिक विचारधारा का प्रश्न है, प्रमुखत: दो विचारधाराएं हैं- पूंजीवादी और समाजवादी (मार्क्‍सवादी). बर्लिन की दीवार ढहने और सोवियत रूस के विघटन से पहले-अस्सी के दशक में ही मार्क्‍सवादी विचारधारा की शक्ति कमजोर पड़ने लगी थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से शीत युद्ध के दौर तक ये दोनों विचारधाराएं आपस में टकरा रही थीं. अस्सी के दशक में ही नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था पर प्रश्न उठने लगे थे. पूंजीवाद के एक नये दौर- वित्तीय पूंजी के वर्चस्वशाली दौर- ने राजनीतिक विचारधारा को कमजोर किया.

भारत में अस्सी के दशक में नये राजनीतिक दलों का जन्म हुआ. भूमंडलीकरण के दौर में राजनीति बाजारोन्मुख हुई. कॉरपोरेट प्रभावशाली हुए. संसद में करोड़पतियों की संख्या बढ़ी. विपक्षी-विरोधी आवाजों को दबाने के प्रयत्न हुए. सत्ता-व्यवस्था का विरोध खतरनाक माना जाने लगा. नंदिनी सुंदर ने अभी अपने एक लेख ‘एवरीह्वेयर, ए माओइस्ट प्लॉट’ (इंडियन एक्सप्रेस, 31 जनवरी, 2014) में नागरिक कर्तव्यों और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति छत्तीसगढ़ सरकार के रवैये की ओर ध्यान दिलाया है. भाजपा एकमात्र ऐसा दल है, जिसमें अब तक टूट या बिखराव नहीं हुआ है. फिलहाल इसकी संभावना भी नहीं दिखती. दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक दल की यह विशेषता अन्य दलों में नहीं है. वाजपेयी ने जिन 24 दलों के साथ मिल कर सरकार बनायी, वह भाजपा के लिए उदाहरण भले हो, पर अन्य दलों के लिए चिंतनीय और विचारणीय है. भाजपा के साथ जुड़े दलों का राजनीतिक विचारधारा से कोई सरोकार नहीं था. आज जो दल कांग्रेस-भाजपा विरोधी मोरचा बनाने को तत्पर हैं, उनमें से कइयों ने भाजपा-से सहयोग किया था. कांग्रेस-भाजपा विरोधी राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा की समान अर्थनीतियों से परहेज नहीं करते. कॉरपोरेट उनके लिये भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. राजनीतिक दलों में वैचारिक बहसें बहुत कम हैं. वाम दल आपस में बैठ कर गंभीर विचार नहीं करते. सबका ध्यान 272 की संख्या पर है. वास्तविक मुद्दे कम विचारणीय हैं. भारतीय राजनीति में मध्यमार्गी दल कांग्रेस आज प्रमुख शक्ति नहीं है. दक्षिणपंथी भाजपा अपनी विचारधारा पर कायम है. वामपंथी-समाजवादी दलों में वैचारिक एकता का अभाव है. वित्तीय पूंजी और बाजार ने विचारधारा को, सैद्धांतिक आग्रहों-दर्शनों को क्षति पहुंचायी है.

टेलीविजन चैनलों पर राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े सवाल बहसों में नहीं हैं. तीसरा मोरचा, संयुक्त मोरचा, समाजवादी मोरचा और संघीय मोरचा की फिलहाल कोशिशें जारी हैं, उनमें कांग्रेस-भाजपा विरोध प्रमुख है. कांग्रेस और भाजपा की केंद्र में सत्ता अन्य राजनीतिक दलों के समर्थन-सहयोग पर रही है. 1984 के बाद के चुनावों में किसी भी दल को अकेले संसद में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है. अनुमान है कि सोलहवीं लोकसभा भी इससे भिन्न नहीं होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद मुख्य सवाल आर्थिक नीतियों का होगा, जिसका संबंध राजनीतिक विचारधारा से है.

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