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ओलिंपिक खेल और हम

अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक क्रिकेट से इतर पिछले एक माह देश किसी और खेल-आयोजन में डूबा रहा. तीन देशों के बीच फाइनल खेलने और 7-8 देशों के बीच विश्व-कप जीतने की हसरत रखनेवाले देश को 200 देशों से स्पर्धा के मैदान में कूदना पड़ा. अरसे बाद क्रिकेट को छोड़ देश की निगाहें रियो ओलिंपिक के […]

अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
क्रिकेट से इतर पिछले एक माह देश किसी और खेल-आयोजन में डूबा रहा. तीन देशों के बीच फाइनल खेलने और 7-8 देशों के बीच विश्व-कप जीतने की हसरत रखनेवाले देश को 200 देशों से स्पर्धा के मैदान में कूदना पड़ा. अरसे बाद क्रिकेट को छोड़ देश की निगाहें रियो ओलिंपिक के परिणामों पर टिक गयीं. लेकिन, 130 करोड़ की आबादी से गये 118 खिलाड़ियों और उनसे ज्यादा अधिकारियों के इस दल ने सिर्फ दो पदक और चंद विश्व-स्तरीय प्रदर्शन देश को दिये. प्रतियोगिताओं से पहले खिलाड़ियों को संसाधनों के लिए तरसानेवाले देश ने दो पदक विजेताओं पर धन-सम्मान की वर्षा कर दी. खेल-रत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार, जिसके लिए योग्य खिलाड़ी ढूंढे नहीं मिलते थे, उसी के चार पुरस्कार एक दिन में ही बांट दिये गये.
पहले उपेक्षा, फिर अपेक्षा और फिर प्रतिक्रिया की अति- यह हमारे ‘सिस्टम’ की अपरिपक्वता और हमारी अधकचरी सोच को बेनकाब कर गया.
याद कीजिये, यह वही समाज है, जो अपने बच्चों का पालन- ‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब’- के आधार पर करता है. बच्चों को दिन में दस घंटे रट्टा लगाके 95 प्रतिशत लाने और डाॅक्टर, इंजीनियर, आइएएस बनने की प्रेरणा देनेवाले अभिभावक, ओलिंपिक में पदक न आने पर देश और सिस्टम को कोसते हैं. कभी पैरेंट-टीचर मीटिंग को न छोड़नेवाले यही अभिभावक स्कूल के वार्षिक खेलकूद में जाने को समय की बरबादी मानते हैं.
अब पिछले दो सप्ताह से देश में बड़ी बहस छिड़ी हुई है कि कैसे ओलिंपिक में धुलाई के कलंक को धोया जाये. सभी अपने सुझाव दे रहे हैं. कोई इंग्लैंड का उदाहरण देकर बता रहा है कि कैसे प्रति मेडल 45 करोड़ रुपये खर्च कर इंग्लैंड ने कुल 67 पदक जीत लिये, तो कोई केन्या का उदाहरण देकर बता रहा है कि संसाधनों की कमी से कुछ नहीं होता, केन्या हमसे बुरी हालत में होते हुए भी पदक जीत लाता है. एक नेता जी तो पता नहीं कहां से यह जानकारी ले आये कि जमैका के उसेन बोल्ट की अप्रतिम सफलता के पीछे उसका बीफ खाना है!
वहीं खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने और ओलिंपिक में जीत का मंत्र ढूंढने के नाम पर हरियाणा के खेल मंत्री विज और जमानत पर छूटे पूर्व-मंत्री चौटाला से लेकर वर्तमान केंद्रीय खेल मंत्री विजय गोयल तक सब रियो का चक्कर लगा आये और अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार नकारात्मक सुर्खियां बटोर लाये. दरअसल, हर ओलिंपिक की तरह कहानी अब भी वही पुरानी है- कुछ दिन का स्यापा और फिर वही ढाक के तीन पात!
हालांकि, इस बीच एक सार्थक खबर आयी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले तीन ओलिंपिक के लिए एक टास्क-फोर्स के गठन की घोषणा की है और देशभर के आमजनों से लेकर विशेषज्ञों तक से सुझाव मांगा है. देर से ही सही, पर शुरुआत तो सार्थक है. अब देखना यह है कि कहीं यह प्रयास भी तो सरकारी फाइलों में दब कर नहीं रह जाता.
दरअसल, ओलिंपिक में पदक जीतना कोई राकेट साइंस नहीं है.
सिर्फ एक सीधा-सादा फलसफा है और वह है मेहनत, सिर्फ मेहनत और कड़ी मेहनत. छोटे-छोटे देश ओलिंपिक-दर-ओलिंपिक हमें यही सीख देते हैं. हमारे देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है. बस जरूरत है इन प्रतिभाओं को बचपन से ही पहचानने और उन्हें उचित रास्ता दिखाने की. साथ ही जरूरत है देश में एक खेल-संस्कृति की, जिसमें सफलता का पैमाना सिर्फ नंबर न हों, बल्कि खेल में अच्छा करनेवाले बच्चों को भी पढ़नेवालों की तरह ही सम्मान और शाबाशी मिले.
हमारे यहां बच्चों के खेलकूद में आगे न बढ़ पाने का एक मूल कारण है हमारे अभिभावकों का बच्चों पर अपनी हसरतें और महत्वाकांक्षाएं थोपना. ज्यादातर मां-बाप अपने बचपन को बच्चों में जीना चाहते हैं.
इसीलिए बगैर यह जाने कि उनके बच्चे क्या चाहते हैं, वे उन्हें वह कुछ बनाना चाहते हैं, जो वे खुद नहीं बन पाये. आज समय की मांग भी है कि बच्चों को अपना रास्ता स्वयं चुनने की स्वतंत्रता दी जाये. जो प्रतिभाशाली हैं, उन्हें उनके चुने हुए मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाये. छोटी अवस्था से ही ट्रेनिंग की शुरुआत हो. ज्ञातव्य है कि ओलिंपिक में कुल 22 पदक जीत कर इतिहास रचनेवाले माइकेल फेल्प्स ने तैराकी सिर्फ 7 वर्ष की अवस्था में शुरू की थी. जल्दी शुरुआत इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ओलिंपिक जैसी स्पर्धा के लिए 8-10 वर्ष के सतत कठिन परिश्रम की आवश्यकता होती है.
जहां एक ओर समाज की सोच में आधारभूत परिवर्तन की जरूरत है, वहीं खेलों को राजनीति से मुक्त कराने की जरूरत भी है. जिन्होंने जिंदगी भर कोई खेल नहीं खेला, वे खेल-संघों के सर्वेसर्वा बने बैठे हैं.
उम्रदराज लोग युवा खिलाड़ियों की दिशा तय कर रहे हैं. भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष 85 वर्ष के हैं. सरकार को चाहिए कि खेलों से चुनिंदा काबिल लोगों को खेल-संघों को चलाने की जिम्मेवारी सौंपे. अच्छा तो होता कि खेल मंत्री भी ऐसा ही बने, जो खेलों की समझ रखता हो और जो खिलाड़ियों से भावनात्मक साम्य रख सके. उदाहरण के तौर पर, बजाय खांटी नेता विजय गोयल के अगर ओलिंपिक रजत-पदक विजेता राज्यवर्धन राठौर को खेल-मंत्री बनाया जाता, तो सरकार की खेलों के प्रति गंभीरता का यह एक उदाहरण बनता.
पदकों की बात आते ही हमेशा हमारी तुलना चीन से होती है. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि चीन को पहला पदक मात्र 32 वर्ष पूर्व 1984 में मिला था. रियो में चीन के 70 पदक इस बात को दर्शाते हैं कि चीन ने कितनी तेजी से और कितनी गंभीरता से अपने यहां खेलों को बढ़ावा दिया है.
हमारे लचर प्रदर्शन की चीनी मीडिया में भी खूब चर्चा हुई है. वहां के लोकप्रिय वेब-पोर्टल सिना.कॉम ने एक पते की बात कही. उसने लिखा, ‘सवा सौ करोड़ भारतीयों को 36 साल में सिर्फ एक गोल्ड मेडल ही मिला, लेकिन फिर भी उन्हें इससे कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता.’
यही है हमारी असफलता की असली वजह! हमें फर्क ही नहीं पड़ता. जिस दिन यह फर्क पड़ना शुरू हो जायेगा, उसी दिन से ओलिंपिक में हमारी जीत का रास्ता खुल जायेगा.

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