शुक्रवार को जब नयी दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक शुरू हुई, तब एक ही सवाल देश की राजनीति में रुचि रखनेवाले लोगों के जेहन में हावी था- क्या कांग्रेस के पास कोई ऐसा नुस्खा बचा है, जो आगामी आम चुनाव में उसके पतन की भविष्यवाणियों को झुठला सके? पिछले कुछ दिनों से राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने की अटकलें लगायी जा रही थीं.
राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ऐसी कोई घोषणा तो नहीं हुई, लेकिन इसने पार्टी की भविष्य की रणनीति को स्पष्ट करने का काम जरूर किया. 2014 के चुनाव प्रचार अभियान की कमान राहुल गांधी को सौंपे जाने और पार्टी के चुनावी पोस्टरों के राहुलमय हो जाने में यह साफ संकेत छिपा है कि कांग्रेस पार्टी उनके पीछे पूरी तरह लामबंद होने और उन पर बड़ा दावं लगाने को तैयार है. एक तरह से इसे कांग्रेस पार्टी के भीतर पीढ़ियों का बदलाव भी कह सकते हैं. और अगर पार्टी कार्यकर्ताओं को दिये गये राहुल गांधी के भाषण को प्रमाण मानें, तो राहुल इस बदलाव के लिए तैयार नजर आ रहे हैं.
वे 125 वर्ष पुरानी पार्टी को उसके संभवत: सबसे नाजुक समय में नेतृत्व देने के लिए पूरे उत्साह और गर्मजोशी से सामने आये हैं. जाहिर तौर पर यह एक कठिन चुनौती है, क्योंकि राजनीतिक साख के बाजार में आज कांग्रेस के पास इतनी कम पूंजी बची है, कि उससे चुनावी कामयाबियों की इमारत खड़ी करना बेहद मुश्किल नजर आता है. राहुल को शायद एहसास होगा कि उनकी लड़ाई भाजपा या किसी दूसरे दल से ज्यादा उनकी अपनी सरकार की नाकामियों से है और वे खुद भी इनकी जवाबदेही लेने से इनकार नहीं कर सकते. लेकिन, राहुल की ये चुनौतियां ही उनकी सबसे बड़ी ताकत बन सकती हैं.
पिछले दो-तीन वर्षो में राहुल के खाते में सफलता कम, नाकामियां ज्यादा आयी हैं. ऐसे में वास्तविकता के धरातल पर देखें, तो राहुल के पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, पाने के लिए पूरा संसार है. उनके नेतृत्व में अगर कांग्रेस को अपनी खोयी जमीन फिर से हासिल करनी है, तो उसे नयी राजनीति की ओर वास्तविक और ठोस कदम बढ़ाना पड़ेगा. यह कांग्रेस के पूरे राजनीतिक ढांचे में बदलाव की मांग करता है. इसके लिए उत्साहपूर्ण भाषण से ज्यादा की दरकार होगी.