सोलहवें लोकसभा चुनाव (2014) के बाद से अब तक कांग्रेस आइसीयू में है. फिलहाल, सामान्य वार्ड में उसके लौटने के चिह्न दिखायी नहीं पड़ रहे हैं. 2012 में उसकी सरकार 14 राज्यों में थी और भाजपा की सात राज्यों में. अब कांग्रेस सरकार कर्नाटक सहित मात्र छह राज्यों में है और भाजपा की 12 राज्यों में. दिल्ली में हार के बाद भी उसने कुछ नहीं सीखा. शीला दीक्षित की तरह तरुण गोगोई (असम) की सरकार भी पंद्रह वर्ष से थी. पराजय निश्चित थी.
कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता तरुण गोगोई के मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के पक्ष में नहीं थे. असम में हिमंत बिस्व सरमा कांग्रेस के प्रमुख थे. तरुण गोगोई को विजयी बनाने में उनकी भूमिका रही है. गोगोई को उन्हें सत्ता सौंप देनी चाहिए थी. सत्ता-लोभ एक समय बाद विनाशकारी सिद्ध होता है. कांग्रेस ने हिमंत बिस्व सरमा को भाजपा में जाने दिया. भाजपा का बोडो लैंड जनमोर्चा और असम गण परिषद से उन्होंने गंठजोड़ कराया. छह महीने पहले ही वे भाजपा में गये और भाजपा की तकदीर खुल गयी. कांग्रेस के साथ एआइयूडीएफ और असम गण परिषद गंठबंधन की इच्छा रखते थे. बोडो पीपुल्स फ्रंट जैसे सहयोगी को उसने साथ नहीं रखा.
नतीजा सामने है. अब पीसी चाको राज्य नेतृत्व पर सारी जिम्मेवारी थोप कर केंद्रीय नेतृत्व को, राहुल गांधी को बचाने में लगे हैं. एक व्यक्ति जब दल में सर्वोपरि हो जाता है, तो वह दल दलदल में फंस जाता है. गोगोई की कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से कहीं बड़ी भूमिका, असम में कांग्रेस के पतन का मुख्य कारण है. लगभग पचपन वर्ष तक कांग्रेस की असम में सरकार रही है. अब वह, वहां से उखड़ चुकी है. भाजपा को पिछले चुनाव में मात्र पांच सीट मिली थी. इस बार 60 है. यह बड़ी छलांग है.
असम और केरल में हारने के पहले हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में वह पराजित हुई थी. इससे भी उसने कुछ नहीं सीखा. अब अगले वर्ष जिन छह राज्यों – हिमाचल, गुजरात, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा में चुनाव होंगे, उनमें किसी में भी जीत की संभावना नहीं है. उत्तराखंड में नौ कांग्रेस विधायक भाजपा में जा चुके हैं. बिहार में कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों-राजद और जदयू से गंठबंधन किया था, पर असम में नहीं. क्षेत्रीय दलों के साथ गंठबंधन के पीछे उसकी कोई दूरगामी दृष्टि नहीं है. पश्चिम बंगाल में वह वाम मोर्चे के साथ जुड़ी और केरल में उसके खिलाफ लड़ी. क्या कांग्रेस एक दृष्टिविहीन पार्टी में बदल गयी है?
आगामी लोकसभा चुनाव (2019) के एक वर्ष पहले छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे, वहां भी कांग्रेस की हालत अधिक अच्छी नहीं रहेगी. तमिलनाडु में जनता जयललिता का भ्रष्टाचार भूल चुकी है, पश्चिम बंगाल में शारदा घोटाला, नारदा स्टिंग के बाद भी ममता बनर्जी की जीत हुई है, पर कांग्रेस के कृत्यों को जनता नहीं भूल रही है. भाजपा के पीछे आरएसएस है. दशकों के उसके संघर्ष के बाद इस बार केरल में भाजपा का प्रवेश हुआ. ममता और जयललिता ने किसी के साथ गंठबंधन नहीं किया था. कांग्रेस गंठबंधन करने और न करने के बीच झूलती रहती है. क्या कांग्रेस की नाव बिना किसी गंठबंधन के पार लगेगी? आगामी विधानसभा चुनावों में क्या वह अकेले चुनाव लड़ने में सक्षम है?
कांग्रेस अनेक मुश्किलों में घिरी हुई है. उसे स्वयं इन मुश्किलों को हल करना होगा. उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी है. कांग्रेस पुराने एजेंडे और तौर-तरीकों के कारण आज की हालत में है. विडंबना यह है कि वह न हिंदू विरोधी पार्टी हो सकती है, न मुसलिम समर्थक. जबकि भाजपा ने अल्पसंख्यकों और दलितों में भी अच्छी सेंधमारी की है. कांग्रेस ने अपनी मुश्किलें स्वयं पैदा की है. उसका शीर्ष नेतृत्व इसे हल करने में अक्षम है. भाजपा का अनुशासन कहीं अधिक तगड़ा है और सबसे अधिक तगड़े नरेंद्र मोदी हैं, जिनके सामने सब नतमस्तक हैं.
कांग्रेस ने भाजपा और आरएसएस को कमतर समझने की भूल की. कांग्रेस को जनता की नाराजगी दूर करनी होगी. शशि थरूर कांग्रेस में बदलाव चाहते हैं, कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ‘सर्जरी’ चाहते हैं. क्या सर्जरी के लिए सोनिया-राहुल तैयार हैं? मणिशंकर अय्यर प्रियंका को ‘सर्वश्रेष्ठ समाधान’ के रूप में देखते हैं. कांग्रेस का भविष्य देश के भविष्य से भी जुड़ा है. आत्मचिंतन और आत्ममंथन के साथ यह सोचना भी जरूरी है कि संतान-मोह का त्याग कर ही देश की रक्षा की जा सकती है, लोकतंत्र को अधिक समृद्ध किया जा सकता है और फासीवाद को चुनौती दी जा सकती है.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
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