कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
एक विद्यार्थी के लिए गला काट प्रतियोगिताओं में बाजी मार लेना जुनूनी मकसद बन जाता है, जब वह पढ़ाई में डूब जाता है. कैनवास पर उकेरी आड़ी-तिरछी लकीरें भी जीवित हो उठतीं हैं, जब एक चित्रकार अपनी कलाकारिता के सुरूर में डूब जाता है. एक मां अपने आशियाने को जन्नत बना देती है, जब वह अपनी घर-गृहस्थी के सुख-दुख को आत्मसात कर लेती है. कर्म जब धर्म बन जाता है, तब कष्ट भी तसल्ली बन जाता है.
गरमी से हम सब परेशान हैं. असहनीय तापमान से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है. आसमान से आग के शोले बरस रहे हैं. शायरों ने अपने-अपने अंदाज में दिनमान से पूछा है, ‘प्रेम-अगन में जल रहे हो या विरह वेदना की आंच में झुलस रहे हो?’ लेकिन, वह दिवामणि मगरूर है अपनी शक्ति पर.
दोपहर होते ही सुनसान गलियां और ठूंठ से खड़े विवस्त्र पेड़ डरावनी सी वीरानगी का अहसास देने लगते हैं. जल-स्तर के गिरने के कारण अपने उद्यान के जिन पौधों को हम बचा सकते हैं, उन पर भी ध्यान नहीं जाता.
कुछ महीने पहले चिड़ियों की चहचहाहट आसमान की नीरवता को तोड़ती हुई जिस गुलजार फिजा का संकेत करती थी, वह भी गरमी की मार से बेजान हो गयी है. चोंच खोले पक्षी कहीं-कहीं पानी के हलके जमाव के पास अपना हलक शांत करते हुए भले ही दिख जायें, पर उनकी चपलता अब व्याकुलता में तब्दील हो गयी है. बच्चों को पांच बजे भोर में ही जगा कर स्कूल रवाना कर दिया जाता है. मजदूरों से अब सुबह के बजाय शाम से रात तक काम लिया जाता है, फिर भी धरती के विकीर्ण ताप का प्रकोप उन्हें झेलना होता है. उपाय भी क्या है? मौसम की मार चाहे जितनी भयावह हो, काम तो छूटेगा नहीं. तो फिर क्यों न हम इस गरमी को हराने के लिए संकल्पबद्ध हो जायें?
ऐसे ही एक भीषण गरमी के दिन झारखंड से पश्चिम बंगाल जाने के रास्ते में धान के लहलहाते खेतों से सामना हुआ.
गजब की तपिश में भी धान की हरी-हरी बालियां झूम कर गर्म हवा से बातें कर रही थीं. सड़क के किनारे अमलतास और पलाश के पेड़ ही ठंडी छांह देने को आतुर थे, बाकी तो सूर्यदेव की कोप का शिकार हो चुके थे. ढाबे भी अपना हुलिया बदल चुके हैं. पहले कच्चे ईंटों और घास-फूस के बने ढाबे जहां एक कतार में खाट बिछा कर अमीर-गरीब के अंतर को मिटा कर बंधुत्व की भावना फैलाते थे, वे भी अब होटलों की तरह एसी और नॉन एसी की सुविधा देकर अपने पारंपरिक संस्कृति को मिटा देने के लिए कमर कस चुके हैं.
मैंने देखा कि खेत में काम करनेवाली कुछ औरतें एक ढाबे के बरामदे में बैठी हुई थीं. सर पर आंचल रख, घुटनों तक साड़ी उठाये हंस-हंस कर बतिया रहीं थीं. चेहरे पर गरमी के नाम की कोई शिकन नहीं थी. मैंने पूछा, ‘इतनी गरमी में कैसे खेतों में काम कर लेती हो? लू मार दे तो?’ एक ने जवाब दिया, ‘गरमी-सरदी का होवे है मलकिनी, हमें तो काम करना है.
काम में जब हम खो जाते हैं, तो मौसम से कोई तकलीफ नहीं होवे है. यही गरमी हमारी फसल को पकावे है, हमारा सोना-चांदी तो यही है. हम तो तेज किरणों के आभारी हैं, जो बालियों को पकावे हैं और खनखना के चाउर (चावल) निकाले हैं.
सचमुच, उस महिला ने चंद लफ्जों में जीवन का मूलमंत्र समझा दिया. किसी काम को करते समय उसमें डूब जाओ, तो किसी तरह की पीड़ा नहीं होती. हम साधारण मानव सरदी में ठंड से त्रस्त रहते हैं और गरमी में गरमी से आहत. हम जिंदगी भर आह-ओह करते रहते हैं. और एक वे हैं, जो साल के छहों ऋतुओं के संग अपने को ढाल कर ‘अहा जिंदगी’ के गूढ़ तत्व को मौन रूप से अपनाते रहते हैं.