।। चंदन श्रीवास्तव ।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
युवा शक्ति का उद्घोष
उदारीकरण के बाद के वर्षो में बाजार की शक्तियों ने मुनाफे के अपने शास्त्र के तहत देश की युवा पीढ़ी को नागरिक की जगह ‘उपभोक्ता’ में तब्दील करने की भरपूर कोशिश की. वे एक हद तक अपनी इस कोशिश में कामयाब होते भी नजर आ रहे थे. लेकिन, पिछले दो-ढाई वर्षो में बाजार द्वारा तैयार की जा रही पटकथा अचानक बदल गयी दिख रही है.
बीते दस वर्षो के दौरान कंपनियों को यह भरोसा हो चला था कि इस देश की युवाशक्ति को उसने लालसा के एक ऐसे चक्रव्यूह में फांस लिया है, जिससे निकलना उसके लिए मुमकिन नहीं है, मगर यह युवा आज अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति जिस सजगता के साथ खड़ा नजर आ रहा है, वह इतिहास की धारा में एक बड़े मोड़ का सूचक कहा जा सकता है. युवा शक्ति के इसी उद्घोष पर केंद्रित इस विशेष आयोजन की आवरण कथा..
कुछ वाक्य आंखों में आग की लपट बन कर उतरते हैं. आप उनसे न तो अपनी आंख चुरा सकते हैं, न ही हटा सकते हैं. आइये, ऐसे ही दो वाक्यों के अग्निपथ से गुजरने की हिम्मत करते हैं. पहला वाक्य है-’’क्रूरता के सामने जा डटो’ यही जीवन भर का सबक है- जो कुछ भयानक है, साहस के साथ उसका सामना करो..’’ और, दूसरा वाक्य है- ‘चीजें अच्छाई के पक्ष में खुद नहीं बदलतीं, वे बदलती हैं जब आगे बढ़ कर उनमें अच्छाई के लिए बदलाव किया जाता है..’
आज से तकरीबन सवा सौ साल पहले देश नये और पुराने के संधिस्थल पर खड़ा पसोपेश में पड़ा था कि किस डगर से जाऊं- ‘काबा मेरे आगे है कलीसा मेरे पीछे.’ पसोपेश को तोड़ कर जिन वाक्यों ने आगे जाने का दिशा-निर्देश किया उन्हीं में शुमार होते हैं ये दो वाक्य.
इन वाक्यों में एक युवा संन्यासी की प्राण-ऊर्जा का संचार है. देश और दुनिया उसे विवेकानंद कहती है. नये साल का पहला महीना जब अपना पखवाड़ा पार कर रहा होगा तो यह देश हर बार की तरह विवेकानंद के जन्मदिन को युवा-दिवस के रूप में मनायेगा लेकिन इस बार का युवा-दिवस हर बार की भांति सिर्फ संकल्पों का साक्षी बनने भर को नहीं आ रहा, इस बार का युवा-दिवस देश की युवाशक्ति के उद्घोष का प्रमाण बन कर आ रहा है. प्रमाण इस बात का कि इस देश का युवा क्रूरता के आगे डट कर खड़ा है और अभय होकर चीजों को अच्छाई के पक्ष में बदलने के लिए जोर लगा रहा है.
देश की युवाशक्ति के उद्घोष की बात विवेकानंद के ही बहाने क्यों, किसी और का नाम क्यों नहीं? इसलिए कि इस देश में आमूल परिवर्तन करने की बात कहने और करने की कोशिश करने वाले बस दो ही हुए. कभी मध्यकाल की अंधेरी गुफाओं में फंसे इस देश के सामने कबीर ने आह्वान किया था-’जो घर जारे आपना चले हमारे साथ!’ और कबीर के बहुत दिनों बाद ‘जीर्ण-शीर्ण पुरातन’ को बचाने के मोह में पड़े इस देश में ‘समूल नाश- तब महानिर्माण’ की आवाज सुनायी पड़ी अकेले विवेकानंद की वाणी में.
सुधारकों से भरे उस युग में एक विवेकानंद ही हुए, जो आत्मविश्वास से गरजती वाणी में कह सकते थे-’इन सुधारकों से कह दो, मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं आमूल परिवर्तन में विश्वास करता हूं.’
क्या आपको नहीं लगता कि देश आज आमूल बदलाव की ऐसी ही गर्जना से गूंज रहा है? क्या आपको नहीं लगता कि देश की युवाशक्ति इस गर्जना के साथ बदलाव का महासमुद्र बन कर हर चीज पर छा जाने को तैयार है?
साज-सामान और स्वाद-सिंगार बेचने वाली कंपनियां बीते दस सालों के भीतर अपने मोटे मुनाफे के बीच आश्वस्त हो चली थीं कि इस देश की युवाशक्ति को उसने अपने शॉपिंग कॉम्पलेक्स, मॉल, टेबलेट, मोबाइल और मोटरबाइक के मायावी जाल में बांध कर साध लिया है. इन कंपनियों ने तो बदले हुए देश का एक नामकरण भी कर दिया था- यंगिस्तान.
कंपनियों को विश्वास था कि कामनाओं को पिरो कर उन्होंने लालच का जो पुराण तैयार किया है, इस देश की युवा पीढ़ी उसका पाठ करने में पारंगत हो चली है और इस युवापीढ़ी का जीवनमंत्र हो चला है- ‘करो ज्यादा का इरादा.’ कंपनियों ने इस देश की देह को देखा, पर देश का मन नहीं बांच पायीं. इस देश के युवामन की पहचान तो कंपनियों की पीआर एजेंसियों से कहीं ज्यादा मुंबइया मसाला फिल्मों को है. हाल-हाल तक (गोविंदा के जमाने तक) मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री ने ऐसी फिल्म-कथाओं को गढ़ना जारी रखा था, जिसमें एक ही किरदार के भीतर दो संभावनाएं होती थीं- एक अच्छी और एक बुरी.
फिल्में दिखाती थीं कि एक ही मां की दो संतान, नियति के फेर से, किसी मेले की भीड़ में अलग-अलग हो जाते थे. एक चोर बनता था तो एक सिपाही, एक गांव का भोला-भाला गवैया बनता था, दूसरा शहर का चतुर सुजान, एक गीता बनती थी, तो दूसरी सीता. और, फिर क्लाइमेक्स के दृश्य में खलनायक के रूप में सामने खड़ी भीषण क्रूरता (या फिर मयार्दा का संकट) का खात्मा तभी हो पाता था जब दोनों एक-दूसरे के साङो आत्म (माता-पिता) को पहचानकर एक साथ मिल कर लड़ाई लड़ते थे.
देश की युवा पीढ़ी का यह दोहरा मानस कंपनियां न पहचान पायीं और अब कंपनियां देख रही हैं कि लालच-पुराण का पाठ करने में पारंगत हो चली जिस युवा पीढ़ी को उन्होंने सिखाया था ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ वही युवा पीढ़ी अचानक ही बदले हुए तेवर में एक नयी जबान बोलने लगी है.
उसका मंत्र है- ‘जिद करो और दुनिया बदलो.’ कंपनियों का संसार हैरत में है कि जिसे असंयमी उपभोक्ता की मूर्ति के रूप में गढ़ा था उसके भीतर प्राणसंचार हुआ तो वह एक जिम्मेदार नागरिक की जुबान बोल रहा है.
उदारीकरण की राह पर सरपट चल पड़े इस देश की चालू राजनीति और इस राजनीति से गलबहियां मिलाती कंपनियों को लगता था- देश की जनांकिकी के आंकड़े उनके पक्ष में हैं. योजनाकार पूरे आत्मविश्वास से बताते थे कि भारत नौजवानों का देश है, कि इस देश की सवा अरब आबादी में 35 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या 51 प्रतिशत से भी ज्यादा है.
और इसमें जितनी महिलाएं( 48.2 फीसदी) हैं उतने ही पुरुष (51.8 प्रतिशत. ज्यादातर (69.9 प्रतिशत) गांवों में रहते हैं, तो एक बड़ी संख्या (30.1 प्रतिशत) शहरों में. और, गांव तथा शहर की युवाशक्ति को साझी शक्ति में ढालने का काम कर रहा है महाशक्तिशाली मीडिया. नये आंकड़े कहते हैं- तकरीबन हर दो गंवई घर में से एक में मोबाइल फोन का इस्तेमाल होता है तो शहरों में तीन घरों में से दो में मोबाइल सेट्स मौजूद हैं.
आंकड़े ये भी कहते हैं कि आज हर तीन ग्रामीण घरों पर एक में कोई न कोई टेलीविजन सेट लगा है जबकि एक दशक पहले यह संख्या पांच में एक घर की हुआ करती थी. इसी तरह देश के शहरी क्षेत्र में साल 2001 में अगर 64.3 फीसदी घरों में टेलीविजन सेट्स थे तो आज 76.7 फीसदी घरों में यह दूरदर्शनी जादू का पिटारा मौजूद है. इस आंकड़े में यह भी जोड़ लें कि देश की युवापीढ़ी बड़ी तेजी से इंटरनेटी होती जा रही है. पंद्रह करोड़ से ज्यादा लोग इस देश में प्रतिदिन दो घंटे से ज्यादा का समय इंटरनेट की दुनिया में गुजारते हैं.
योजनाकारों के इस आंकड़े पर सबसे ज्यादा किसकी बांछे खिलती थीं? मुनाफा की माला फेरनेवाली कंपनियों की! उन्होंने मुहावरा रचा- आजादी का, जिद का, बदलाव का, दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का और इसे मीडिया के चित्रपट पर रुपहली कथा के रूप में परोसना शुरू किया. इस कथा का घोषवाक्य था- ‘एक टके का कमाओ, कर्ज लेकर सौ टके का खाओ और ट्वेन्टी फोर इनटू सेवेन भोगमय समय में अहर्निश गदगद भाव से अघाओ!
कंपनियों को पता न था कि वे क्रांतिकारी मुहावरे रच रही हैं. उनके मुहावरे क्रांतिकारी साबित हुए, इस अर्थ में कि इन मुहावरे ने पहली बार इस देश में एक अधिकारचेतस् ग्राहक रचा. अधिकारचेतस् ग्राहक- जो खरीदी गयी चीज से अधिकतम संतुष्टी की अपेक्षा रखता है, ध्यान रखता है कि खरीदा गया सामान किस दुकान पर अपेक्षाकृत सस्ता मिलता है, मेरी जरूरत के अनुकूल बैठता है कि नहीं और मोल चुकाने के बाद सेवा और सामान वक्त की पाबंदी के साथ मुहैया होते हैं कि नहीं.
कंपनियां सोच रही थीं, इस देश का युवा अधिकारचेतस् ग्राहक होकर रह जायेगा, लेकिन नहीं! अधिकारचेतस् ग्राहक के भीतर से ही एक नया व्यक्तित्व फूटा. नया युवा ग्राहक बनने के साथ-साथ नागरिक भी बना- अधिकारचेतस् नागरिक. और इस अधिकारचेतस् नागरिक ने अपने राज्य से बिल्कुल ग्राहक वाले अंदाज में सेवा और सामान की मांग करनी शुरू कर दी है.
कंपनियां कहती थीं बाजार की दुनिया में ग्राहक ही राजा है और ठीक इसी तर्ज पर युवा नागरिक चाहता है, कि राज्यसत्ता उसकी मांग के अनुरूप चले, अगर नहीं चल रही तो फिर राज्यसत्ता के केंद्र में स्वयंभू नागरिक को प्रतिष्ठित करने के लिए वह राजनीति को बदल देने के लिए उद्धत है. युवा-नागिरक अब सुधारों को नहीं मानता, वह आमूल परिवर्तन का हामी है.
देश ने बीते दो सालों में बदलावों के आवेग को दम साधे देखा है. उस वक्त जब अन्ना दिल्ली में अनशन पर बैठे थे, लहराते हुए तिरंगे और देशभक्ति के फिल्मी गीतों के बीच युवा-आक्रोश शासन से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग कर रहा था. उसे जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में किसी पार्टी, घोषणापत्र या नेता ने नहीं बुलाया था.
उसे बुलाया था अपने भीतर ही उठ रहे एक नैतिक आह्वान ने कि लोकतंत्र में शासन की धुरी स्वयं जनता होती है और मौजूदा शासन अपने नागरिकों की आकांक्षाओं से कटा हुआ है.
भीतर से उठ रहे इस नैतिक आह्वान ने एक संदेश गढ़ लिया- जनलोकपाल का, एक चेहरा तलाश लिया अन्ना हजारे का और एक चेहरे, एक संदेश के बूते दिल्ली की गलियां सत्ता के गलियारों को चुनौती देने के लिए उठ खड़ी हुईं. यही हआ उस वक्त जब बेहतर जिंदगी की तलाश में दिल्ली पहुंचे एक पुरबिया परिवार की नौजवान लड़की गैंगरेप का शिकार हुई.
युवा-आक्रोश देश की आधी आबादी के पक्ष में शासन को सतर्क और जवाबदेह बनाने की मांग करते हुए स्वत: स्फूर्त भाव से चहुंओर उठ खड़ा हुआ. इस बार तो अन्ना सरीखा कोई आंदोलनी चेहरा भी ना था- अगर कुछ था तो एक नाम- ‘निर्भया’ का. और इस नाम के भीतर से फिर एक नैतिक आग निकली कि शासन को अपनी जनता के प्रति तो जवाबदेह होना ही होगा.
आखिर को देश की नौजवान पीढ़ी ने देखा- उनका आह्वान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सजावटी फेरबदल और कानून के नुक्तों के बीच फंस कर दम तोड़ रहा है. ठीक-ठीक एक अधिकारचेतस् ग्राहक की ही तरह स्वयंसेवी भाव से युवा पीढ़ी ने एक विकल्प गढ़ा- आम आदमी पार्टी का.
चुनाव का पैसा सेवाभावी लोगों से हासिल चंदे का, चुनाव के प्रत्याशी सेवाभावी लोगों के बीच से, चुनाव का एजेंडा जनता की जरुरतों के आकलन पर आधारित जनसेवा का और सरकार अरविंद केजरीवाल की नहीं, बल्कि हम और ‘आप’ की.
युवा-आक्रोश ने अपने दमखम से दिल्ली के बहाने पूरे देश को दिखाया कि नेता का असली मतलब जनता का सेवक होता है और लोकतंत्र में संप्रभुता शब्द के सटीक अर्थों में संसद के गलियारों में नहीं बल्कि गली-कूचो में रहने वाली जनता में निवास करती है. 2014 का आगाज युवा आक्रोश के युवा आकांक्षाओं में परिवर्तित होने की प्रक्रिया मजबूत होने के संकेत के साथ हुआ है. इन आकांक्षाओं को बाजार या राजनीतिक प्रभुओं के वर्ग द्वारा अपने हित में कंडीशन किया जाना अब मुमकिन नहीं दिखाई देता.