मुजफ्फरनगर दंगों के आईने में देखें तो उत्तर प्रदेश का शासन और वहां का नागरिक समाज एक ही साथ असफल नजर आते हैं. दंगों की आंच को भड़के और शांत हुए तकरीबन चार महीने बीत गये हैं. यूपी सरकार का आकलन है कि राहत शिविरों में कम से साढ़े चार हजार पीड़ित शेष बचे हैं. मानवाधिकार संगठनों के हवाले से राहत शिविरों में रहनेवाले दंगा पीड़ितों की संख्या दस हजार से ऊपर बतायी जा रही है.
पहले तो यूपी सरकार ने मुजफ्फरनगर के दंगे को दंगा मानने से ही इनकार किया. स्थिति हाथ से फिसली तो आलोचनाओं के बीच दंगे में मारे गये लोगों के परिजनों को कुछ लाख रुपये मुआवजा देने की बात कह कर कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. जले पर नमक छिड़कने का काम यह हुआ कि दंगा भड़काने और दंगे में शामिल होने के आरोप में हजारों लोगों के नाम प्राथमिकी में दर्ज हुए. फिर सरकार ने सक्रियता दिखाते हुए ऐसे लोगों के नाम वापस लिये. नतीजतन दंगा भड़काने और उसमें शामिल होने के आरोपी निर्भय होकर घूम रहे हैं और बहुत से परिवार भय के माहौल में घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे.
राहत शिविरों में इंतजाम का आलम यह है कि बढ़ती ठंड के साथ हर हफ्ते किसी बुजुर्ग या बच्चे की मृत्यु की खबर आती है और इन खबरों को झूठा बताने के लिए यूपी सरकार का तर्क है कि राहत शिविरों में रहनेवाले लोग दंगा पीड़ित नहीं, अन्य दलों के लोग हैं, जो अधिक मुआवजे या जमीन कब्जाने के लालच में राहत शिविरों से जाना ही नहीं चाहते. राहत शिविरों के राहुल गांधी के दौरे के बाद मुलायम सिंह का बयान इसी तर्क की प्रतिध्वनि है. यूपी सरकार का पक्ष है कि दंगा पीड़ित का पुनर्वास कब का हो चुका है. उधर, बीजेपी सार्वजनिक तौर पर दंगे के आरोपी नेताओं का अभिनंदन कर चुकी है.
ऐसे में, राहत शिविरों में रह रहे दंगा-पीड़ित परिवार कड़कड़ाती ठंड में देवबंद मदरसे से मिलनेवाली नाकाफी इमदाद के सहारे किसी तरह जिंदगी बसर कर रहे हैं. गौर करें तो सहायता व सहानुभूति पहुंचाने के मामले में राज्य सरकार ही नहीं, नागरिक-संगठन भी असफल सिद्ध हुए हैं. पीड़ितों को इंसाफ दिलाना तो दूर, राहत और पुनर्वास की कोशिश भी आरोप-प्रत्यारोप की निष्ठुर राजनीति के बीच सार्वजनिक प्राथमिकता के तौर पर दर्ज नहीं हो पायी है.