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महिला दिवस की सार्थकता

वीना श्रीवास्तव साहित्यकार एवं स्तंभकार हमारे देश में पूरे वर्ष हम चाहे कुछ ना करें, लेकिन किसी ‘खास दिवस’ पर ढोल जरूर पीटते हैं. हम जिसके लिए खास दिवस मनाते हैं, पूरे वर्ष उसकी धज्जियां ही क्यों ना उड़ाते रहे हों, मगर खास दिन को ‘शो ऑफ’ करना नहीं भूलते. ‘फादर्स डे’, ‘मदर्स डे’ पर […]

वीना श्रीवास्तव

साहित्यकार एवं स्तंभकार

हमारे देश में पूरे वर्ष हम चाहे कुछ ना करें, लेकिन किसी ‘खास दिवस’ पर ढोल जरूर पीटते हैं. हम जिसके लिए खास दिवस मनाते हैं, पूरे वर्ष उसकी धज्जियां ही क्यों ना उड़ाते रहे हों, मगर खास दिन को ‘शो ऑफ’ करना नहीं भूलते. ‘फादर्स डे’, ‘मदर्स डे’ पर मां-पिता को विश करना और पूरे वर्ष उन्हें जली-कटी सुनाना हमारी आदत है. इसी तरह महिला दिवस भी है. हर साल आठ मार्च को लोग महिला दिवस मनाते हैं, मगर पूरे वर्ष ऑफिस में महिला के बढ़ते कदम देख कर उसे गिराने की सोचते रहते हैं. पुरुष अपने साथ की और राह चलती महिलाओं के शरीर का एक्स-रे करते हैं और शिकायत होने पर कागज के नोट देकर कानून को ठेंगा दिखाते हैं.

अक्सर महिला-अधिकारों की बात होती है, मगर सच यह है कि अधिकतर महिलाओं को उनके संवैधानिक और मौलिक अधिकारों की जानकारी लगभग नहीं के बराबर है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 16 में देश के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार दिया गया है. संविधान के अनुच्छेद 14 में है कि कानून के सामने स्त्री और पुरुष दोनों बराबर हैं. संविधान के अनुच्छेद 15 के अंतर्गत महिलाओं को भेदभाव के विरुद्ध न्याय का अधिकार प्राप्त है.

संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं के मान-सम्मान की रक्षा के लिए कानून बनाये गये हैं. ऐसे कानून चाहे कितने भी बन जाएं, जब तक इन कानूनों और अधिकारों के बारे में महिलाएं अनभिज्ञ रहेंगी, तब तक कानून केवल किताबों तक ही सीमित रह जायेंगे. आज भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा और इस हिस्से में भी कितनी महिलाएं कानूनों के बारे में जानती हैं और अगर जानती भी हैं, तो कितनी महिलाएं कानूनों का लाभ उठा कर कोर्ट का दरवाजा खटखटाती हैं, यह सर्वविदित है.

अगर हमारे देश की महिलाएं जागरूक हों, अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखें, पुरुष की चीखती आवाज के आगे अपने प्रतिरोध का स्वर उससे ऊंचा करें, पुरुषवादी सोच के आगे नतमस्तक होना और उसके जुल्मों को सहना बंद करें, अपना हक मांगने से ना मिलने पर छीनना जानें, अपनी सोच विकसित करें, तमाम दबावों से ऊपर उठना जानें, लोग क्या कहेंगे और समाज क्या कहेगा जैसी खोखली बातों को दरकिनार कर अपने निर्णय लेना जानें, तभी बदलाव नजर आयेंगे. सबसे अहम् बात अपने परिवार के झूठे दिखावे, सम्मान व बदनामी का सोच कर अत्याचार सहनेवाली नारी को इन बातों से बाहर निकलना होगा, क्योंकि एक महिला का सम्मान परिवार के सम्मान से कहीं ज्यादा बड़ा है. परिवार का सम्मान तभी बढ़ेगा जब नारी का सम्मान होगा.

जब परिवार में नारी ही अपमानित होगी, तो परिवार का सम्मान कैसे बच पायेगा? परिवार की केंद्र बिंदु नारी है. उसी पर अत्याचार हो, ‘वंश वारिस’ के नाम पर जहां बेटे की दूसरी, तीसरी शादी होती हो, जहां ससुर, देवर, जेठ बहू का यौन शोषण करते हों और सास यह कह कर चुप करा दे कि घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए, वहां किसके लिए अत्याचार सहना और क्यों?

जहां नारी ही नारी का सम्मान न करे, वहां पुरुष से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह नारी को सम्मान देगा. पुरुष तो आदतन नारी को भोगना जानता है. विवाह करके, बलात् प्रयास या फिर चंद रुपयों में खरीद कर. उसके लिए नारी का रूपवान-कुरुप होना, मैली-कुचैली, कॉलगर्ल या मूक-बधिर, पगली, अधेड़ या पांच महीने से लेकर किसी भी उम्र की नाबालिग या युवती होना मायने नहीं रखता. वह केवल नारी शरीर चाहता है, जिस पर जोर-आजमाइश करता है.

आज भी कितने घरों में नारी भोग की वस्तु ही समझी जाती है. उनकी सुबह तो होती है पांच बजे, मगर दिन कब चढ़कर ढल जाता है, रात गहरा कर कब सो जाती है, वह नहीं जान पाती. बुखार से तपती देह हो या गठिया का दर्द, सूखी ठूंठ हो या झुकी पीठ, खांसी से छाती जमी हो या आग से जले और चाकू से लहू-लुहान हाथ, उसे फर्ज याद रहते हैं. इसके इतर भी कोई जिंदगी है, वह नहीं जानती. अगर जानना चाहे भी, तो ससुराल का सख्त अनुशासन नहीं तोड़ सकती. कभी बगावत के सुर उठते भी हैं, तो तलाक देने का खौफ दिखाया जाता है.

फिर भी किसी महिला के इरादे ना डिगें, तो फिर पति की कसम, बच्चों की दुहाई देकर इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है. अगर हम वाकई महिलाओं की स्थिति सुधारना चाहते हैं, तो हमें लड़कियों से पहले लड़कों को शिक्षित-संस्कारित करना होगा. जब लड़के, युवक, पुरुष संस्कारी होंगे, महिलाओं का सम्मान करेंगे, तो महिलाएं-बेटियां खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी. उस दिन महिला दिवस की सार्थकता होगी.

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