मधुरेंद्र सिन्हा
आर्थिक विश्लेषक
भारतीय मुद्रा इस समय गिरावट के दौर से गुजर रही है और डॉलर है कि तमाम उठापटक के बीच तेजी से बढ़ रहा है. हालांकि, भारतीय 28 अगस्त, 2013 को भूले नहीं हैं, जब डॉलर के मुकाबले रुपया गिर कर 68.85 के स्तर पर जा पहुंचा था़ उस वक्त सिर्फ छह महीने की अवधि में रुपया 20 प्रतिशत तक जा गिरा था़ अब वही स्थिति फिर दोहराये जाने के हालात पैदा हो गये हैं. बीती 17 फरवरी को रुपया गिर कर डॉलर के मुकाबले 30 महीने के अपने न्यूनतम स्तर (68.47) पर जा पहुंचा़ कारोबार के मध्य सत्र में तो यह स्तर 68.67 तक नीचे जा पहुंचा था़ इससे रुपये के भविष्य को लेकर फिर से सवाल खड़े हो रहे हैं. आशंका व्यक्त की जा रही है कि डॉलर की कीमत 70 रुपये से भी ऊपर जा सकती है़
2014 में केंद्र में नयी सरकार आने के बाद उम्मीदें जगी थीं कि रुपये के मुकाबले डॉलर सस्ता होगा, लेकिन अमेरिकी मुद्रा ऊपर ही चढ़ती गयी़ इसका बड़ा असर आयात पर पड़ा़ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट का भारत को पूरा फायदा नहीं मिल पाया़ इसी तरह सोना तथा अन्य आयातित सामानों की भी हमें अधिक कीमत देनी पड़ी रही है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मार्केट में वे पहले से कम कीमत पर उपलब्ध हैं.
वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच इस समय डॉलर सबसे मजबूत करेंसी के रूप में उभरा है़ उसके मुकाबले दुनिया की तमाम उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं चारों खाने चित्त हो गयी हैं.
यूरो और येन जैसी मुद्राएं भी डॉलर के आगे नहीं ठहर पा रही हैं. दरअसल, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण आने और वहां के केंद्रीय बैंक यानी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से दुनिया भर के मुद्रा बाजारों में गिरावट आयी है़ जब-जब अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ती हैं, तो उसके प्रभाव से सारी दुनिया की मुद्राओं में गिरावट होती है, क्योंकि वैश्विक निवेशक उसकी ओर ही रुख करते हैं. इस बार अमेरिकी फेडरल रिजर्व की गवर्नर जैनेट येलेन ने संकेत दिये हैं कि वह आगे भी ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर सकती हैं. इसका मतलब साफ है कि आनेवाले समय में डॉलर और मजबूती दिखा सकता है. विदेशी निवेशक ऐसी हालत में उधर का ही रुख करेंगे. इससे तमाम मुद्राओं पर दबाव बनेगा और रुपया भी इससे अछूता नहीं रहेगा.
अभी अपना मौजूदा स्तर बरकरार रखना ही भारतीय मुद्रा के सामने बड़ी चुनौती है, क्योंकि ज्यादातर उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं गिर रही हैं. मलयेशिया का रिंगिट, कोरिया का वॉन, ब्राजील का रियल, ताइवानी डॉलर वगैरह सभी गिर रहे हैं. यह सब चीन के युआन में गिरावट का भी असर है.
चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करके अपने निर्यात में बढ़ोतरी का पुराना तरीका अपनाया है. मंदी से घबराया हुआ चीन अपनी मुद्रा को गिरा कर भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं के लिए चुनौती पैदा कर रहा है. इसका असर भारत के निर्यात पर भी पड़ेगा, क्योंकि हमारे निर्माता चीन के सस्ते माल का मुकाबला नहीं कर पायेंगे.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत दिख रही है और राजस्व घाटा तथा बजट घाटा पूरी तरह से सरकारी अनुमानों के अनुरूप ही हैं. ऐसे समय में रुपये का लगातार गिरते जाना चिंता का विषय है. पिछले पांच वर्षों में डॉलर रुपये के मुकाबले ढाई गुने से भी ज्यादा बढ़ा है.
2011 में एक डॉलर जहां 44 रुपये का था, आज 68 रुपये से भी ऊपर है. डॉलर के मुकाबले रुपये के गिरने से आम आदमी की जेब से भी ज्यादा पैसे निकल रहे हैं. भारत मूल रूप से आयात करनेवाला देश है. हम निर्यात कम करते हैं, आयात ज्यादा. कच्चे तेल, इलेक्ट्रॉनिक सामान और सोने के आयात पर हम बहुत खर्च करते हैं. एक डॉलर के सौदे के लिए अब कहीं ज्यादा रुपये देने पड़ रहे हैं. इससे दोहरी मार पड़ रही है. एक ओर जहां कंपनियों की आय कम हो रही है, वहीं इसका नकारात्मक असर देश के व्यापार संतुलन पर भी पड़ रहा है.
अंततः यह स्थिति आम आदमी की जेब पर भी भारी पड़ रही है. एक ओर तो भारतीय ऊंची ब्याज दरों से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर बढ़ते डॉलर की मार है. भारतीय मुद्रा के गिरने का असर शेयर बाजार पर दिख रहा है, जो लगातार गिरता जा रहा है. वैश्विक निवेशक रुपये की चाल और दशा-दिशा का खास अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं. इस स्थिति में वे बाजार से लगातार निकासी भी कर रहे हैं.
अब आर्थिक विश्लेषकों की नजर आम बजट पर है. वे इंतजार कर रहे हैं कि सरकार निवेशकों का विश्वास जीतने के लिए क्या-क्या कदम उठाती है. फिलहाल इतना तय है कि भारत में विदेशी निवेश बढ़ेगा, तभी डॉलर के मुकाबले रुपये के दाम नियंत्रित होंगे.