।। पुष्परंजन ।।
(ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर इन दिनों काठमांडू में हैं. 2008 के बाद दूसरी बार उन्होंने नेपाल में मतदान का पर्यवेक्षक बनने के लिए समय निकाला है. 89 साल के जिम्मी कार्टर के साथ पचास प्रेक्षकों का जत्था है. यूं तो कार्टर सेंटर का काम दुनियाभर में शांति स्थापना और स्वास्थ्य की देखरेख करना है, लेकिन पिछले कुछ वर्षो से इस संस्था ने मानवाधिकार, प्रोटेस्टेंट ईसाइयत का प्रचार और दुनिया के कई सारे देशों में चुनावों का जायजा लेने में अपनी दिलचस्पी दिखायी है. कार्टर सेंटर ने किस तरह मध्य-पूर्व और अफ्रीका में कई सारी रिपोर्ट तैयार करने में सीआइए से सूचनाएं साझा की है, इस बारे में कहानी फिर कभी बताऊंगा.
इस समय नेपाल में कार्टर सेंटर के अलावा यूरोपीय संघ के देशों से 83 पर्यवेक्षक पधारे हुए हैं. नेपाली चुनाव पर्यवेक्षक समिति 40 अंतरराष्ट्रीय अतिथियों का अलग से समन्वयन कर रही है, जो चुनाव के बारे में अपनी राय देंगे, और रिपोर्ट दाखिल करेंगे. हालांकि नेपाल में पर्यवेक्षकों को लेकर लोगों का अच्छा अनुभव नहीं रहा है. मतदाताओं ने पूछा है कि ये पर्यवेक्षक क्या सचमुच दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर मतदान का जायजा लेते हैं, या फिर पिकनिक मनाने नेपाल के मेट्रो शहरों में आते हैं? पिछले चुनाव में कई प्रत्याशियों ने भी पूछ दिया था कि नेपाल के दुर्गम इलाकों में पर्यवेक्षक दिखे तक नहीं, तो फिर उन्होंने किस आधार पर ‘फ्री एंड फेयर पोल’ का सर्टिफिकेट दे दिया?
नेपाल में 2008 के चुनाव में पर्यवेक्षकों की भीड़ लग गयी थी. 148 संस्थाओं के सैकड़ों चुनाव प्रेक्षक नेपाल पधार गये थे, लेकिन सिर्फ 29 लोगों ने अंतिम रिपोर्ट सौंपी थी. नेपाल सरकार के करोड़ों रुपये इन बिन बुलाये मेहमानों के सत्कार में स्वाहा हो गये थे. यही कारण है कि इस बार नेपाल चुनाव आयोग ने सख्ती दिखायी है, और पर्यवेक्षकों के लिए कुछ पैरामीटर तय किये हैं. मसलन, एक पर्यवेक्षक का कम से कम स्नातक होना जरूरी है, उसे इसका अनुभव हो कि चुनाव का आकलन और निरीक्षण कैसे किया जाता है. यदि कोई संस्था प्रेक्षक भेजती है, तो नेपाल के जिला प्रशासन में उसका निबंधन होना चाहिए, उस इलाके से परिचित होना चाहिए. साथ ही पर्यवेक्षक को मतदान का जायजा लेने के लिए हिमालय के दुर्गम स्थानों से लेकर पहाड़ और तराई में जाने के लिए तैयार रहना होगा. शायद यही कारण है कि इस बार नेपाल में 2008 की तरह चुनावी पर्यटन करनेवाले तथाकथित पर्यवेक्षकों की भीड़ नहीं है. नेपाली चुनाव आयोग ने ‘मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन’ को नियंत्रित करने के लिए अच्छा तरीका अपनाया है. इससे बाकी देशों को भी सबक लेने की जरूरत है.
इस देश में भरोसे का भूस्खलन सिर्फ पर्यवेक्षक के स्तर पर नहीं हुआ है. राजनीति, न्यायपालिका, पुलिस-प्रशासन व्यवस्था, व्यापार-व्यवस्था सब पर से आम नेपाली का विश्वास समाप्त हो गया है. लेकिन एक बात के लिए नेपाली मतदाता बधाई के पात्र हैं कि उसे अपने वोट की ताकत पर अब भी भरोसा है. दो दिनों से गांवों की तरफ लौटती भीड़ इस बात की गवाह है कि नेपाली मतदाता 33 दलों द्वारा चुनाव बहिष्कार और हिंसा की धमकियों के आगे नहीं झुका. 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद लोकशाही से एक आम नेपाली को यही उम्मीद थी कि देश में जल्द ही नया संविधान बनेगा और नेपाल का नव-निर्माण होगा. लेकिन पांच वर्षो में नेपाल ने सिर्फ खोया है. जो पाया है, वह नहीं के बराबर है. 2008 में संविधान सभा दो वर्षो के लिए चुनी गयी थी, उसे नेताओं ने किसी न किसी बहाने, दो साल और खिसका लिया. संविधान के प्रारूप पर बातचीत के लिए 11 बार समितियां बनीं, लेकिन संसद में एक बार भी पूरा सदन इस पर चर्चा के लिए एकत्रित नहीं हुआ. चार साल में पांच प्रधानमंत्री आये और गये. प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी कार्यकारी प्रधानमंत्री बन कर चुनाव करा रहे हैं. ऐसा पहली बार हुआ कि न्यायपालिका की पहल पर नेपाल में चुनाव हो रहा है. यह लोकतंत्र के लिए बहुत खुश होनेवाली बात नहीं है. मोहन वैद्य किरण और 33 पार्टियां न्यायाधीश खिलराज रेग्मी की कार्यकारी सरकार की देखरेख में चुनाव नहीं चाहती थी. लेकिन बाद में उन्होंने यह हवा देनी शुरू की कि विदेशी शक्तियां, खासकर भारत और अमेरिका नेपाल में चुनाव करा रही हैं. जबकि इस बार चुनाव सामग्री चीन ने भेजी है.
2008 के बाद के चार साल नेपाल में बुरे गुजरे. सत्तारूढ़ एकीकृत नेकपा माओवादी से कॉमरेड किरण ने अलग होकर ‘नेकपा-माओवादी’ का निर्माण कर लिया. तराई में ‘एक मधेश-एक प्रदेश’ का नारा देनेवाले दो दल 2008 के चुनाव में थे. अब दर्जन भर दल तराई में उग आये, लेकिन तराई की समस्या अब भी वहीं की वहीं है. नेपाली कांग्रेस भी अविश्वास, वर्चस्व की लड़ाई और भितरघात से जूझ रही है. ‘राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी- नेपाल’, गाय की पूंछ पकड़ कर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है. सदियों से नेपाल का शोषण करनेवाला राजदरबार एक बार फिर से हिंदूवाद की सवारी कर रहा है. हिंदूवाद के नाम पर राजा की वापसी यदि होती है, तो इसे एक चमत्कार ही माना जा सकता है. नेपाल के मतदाताओं को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि इनसे अच्छे तो हमारे भूतपूर्व राजा ज्ञानेंद्र हैं. अब चुनाव परिणाम के बाद ही यह तय होगा कि मतदाताओं ने ‘सेकुलर बनाम हिंदू नेपाल, राजतंत्र बनाम रिपब्लिक’ में से किसे पसंद किया है.
नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण भारत विरोध के अहंकार से इतने ग्रस्त हो गये कि उन्होंने 33 दलों को एकजुट करके चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर दी. धमकी, हड़ताल, हिंसा के आगे नेपाल के वोटर क्यों नहीं झुके इसकी समीक्षा मोहन वैद्य किरण जैसे नेताओं को जरूर करनी चाहिए. नेपाली मतदाताओं की मन:स्थिति को समङिाए, तो लगेगा कि भारत विरोध के नाम पर विप्लवकारी राजनीति के टोटके को वे खारिज कर रहे हैं. रोल्पा, डोल्पा, पांचथर, ताप्लेजुंग जैसे दुर्गम पहाड़ से लेकर झापा, मोरंग, इलाम तक के माओवादी गढ़ में मोहन वैद्य किरण के आह्वान को मतदाताओं ने नहीं सुना, तो इसका मतलब यह है कि नेपाल की जनता शांति-प्रक्रिया को पूरा होते देखना चाहती है. लेकिन मोहन वैद्य किरण और 33 दलों के नेता क्या चुप बैठ जायेंगे? चुनाव को अवैध घोषित करने, और नये चुनाव की मांग करने से ये नेता बाज नहीं आनेवाले. संविधान निर्माण तक में ये लोग बाधा पैदा कर सकते हैं. फिर भी यदि किसी एक दल को दो तिहाई बहुमत मिला, तो शायद इस बार नेपाल का संविधान बने. दुनिया उम्मीद पर कायम है!