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असहिष्णुता पर व्यापक बहस जरूरी

पुष्‍पेश पंत पिछले दिनों देश में यह बहस गर्म रही है कि असहिष्णुता का माहौल कितना त्रासद हो चुका है- यहां तक कि आमिर खान को पत्नी की यह चिंता सार्वजनिक करनी पड़ी कि क्या यह देश अब निरापद रहने लायक रह गया है? असली सवाल यह है कि क्या यह असहिष्णुता सिर्फ अल्संख्यकों के […]

पुष्‍पेश पंत

पिछले दिनों देश में यह बहस गर्म रही है कि असहिष्णुता का माहौल कितना त्रासद हो चुका है- यहां तक कि आमिर खान को पत्नी की यह चिंता सार्वजनिक करनी पड़ी कि क्या यह देश अब निरापद रहने लायक रह गया है? असली सवाल यह है कि क्या यह असहिष्णुता सिर्फ अल्संख्यकों के प्रति देखने को मिलती है या वास्तव में किसी भी तरह का मतभेद या असहमति मुखर करनेवाले को शत्रु ही समझा जाने लगा है. जाने कितने कवियों, कलाकारों, समाजशास्त्रियों, सार्वजनिक बौद्धिकों वैज्ञानिकों ने सम्मान-पुरस्कार लौटने का अभियान छेड़ दिया है. राष्ट्रपति एकाधिक बार यह चेतावनी देने को बाध्य हुए हैं कि इस बहुलवादी देश में असहिष्णुता का कोई स्थान नहीं हो सकता. हमारे संविधान की आत्मा इसके अभाव में अजर-अमर नहीं रह सकती. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसी बहस ने संसद में असहिष्णुता पर केंद्रित बहस का सूत्रपात किया है, परंतु सिर्फ इतने भर को संतोष का विषय नहीं समझा जा सकता. क्या इतने भर से समस्या का समाधान हो सकता है? कदापि नहीं.

यह सवाल उठाया जाना जरूरी है कि क्या यदि हमारा संस्कार बुनियादी तौर से सहनशील/सहिष्णु है, तो क्या कोई भी नेता उसे अपने करिश्मे के काले जादू से या कोई भी राजनीतिक दल किसी जुनूनी विचारधारा के नशे में किसी व्यक्ति या समूह को हिंसक रूप से असहिष्णु बना सकता है? यह सच है कि भाजपा/एनडीए के साथ जुड़े कुछ छोटे बड़े नेताओं के गैरजिम्मेवार निरंकुश बयानों ने निश्चय ही सांप्रदायिक सद्भाव नष्ट किया है और अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों तक को ‘संयमी अनुशासित आचरण’ के लिए आदेश-निर्देश देने में प्रधानमंत्री असमर्थ या अनिच्छुक नजर आते रहे हैं, पर क्या इस बदलाव के लिए सिर्फ एक व्यक्ति या दल ही जिम्मेवार ठहराया जा सकता है? क्या पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, या केरल में, जहां भाजपा सत्तारूढ़ नहीं है, राज्य या समाज सहनशील है? क्या वहां सहिष्णुता का माहौल है?

हमारी राय में भारत जैसे विविधता से भरपूर इस देश में सहिष्णुता की बात करना ही पाखंड है. हम सहनशील होकर किसी पर अहसान नहीं करते हैं. वास्तव में विविधता में जबरदस्ती एकता की तलाश करने कि प्रायोजित कोशिश ने ही इस सिर दर्द (जानलेवा नासूर) को पैदा किया है. जरूरत है फर्क को सहज भाव से स्वीकार कर उसका उत्सव मनाने की! एकता में बहुलता को पहचानें और उसे स्वदेशी, राष्ट्रप्रेमी समझें. देशभक्ति की किसी एक परिभाषा को अंधा कानून मानने से इनकार करें. असहिष्णुता मात्र अल्पसंख्यक समुदाय तक सीमित नहीं. यह लिंग भेदभाव जनित अन्याय वाले आचरण में भी देखने को मिलता है और दलितों के शोषण उत्पीड़न में भी. इतना ही नहीं, आदिवासी हों या समलैंगिक, देहाती गरीब हों या शहरों में घुसपैठिये जरायम पेशावाले असामाजिक तत्व समझे जाते हैं, इस असहिष्णुता का शिकार रोजमर्रा की जिंदगी में होते रहते हैं. इन सबकी संख्या जोड़ दी जाये, तो यह अल्पसंख्यक नहीं रहते, बहुसंख्यक बन जाते हैं.

इस सब से यह ना समझे कि इन पंक्तियों के लेखक का कोई इरादा असहिष्णुता को इतने व्यापक तरीके से परिभाषित करने का नहीं कि उभरती चुनौती से मुंह चुराने की सहूलियत किसी को भी मिल जाये. जाहिर है कि धर्म और जाति के आधार पर फर्क करनेवाले इन समुदायों के सदस्यों को कई तरह से असुरक्षित महसूस कराते हैं और सामाजिक संबंधों पर असह्य दबाव डालने लगे हैं. मुसलमान ईसाई हों या दलित आदिवासी इन समुदायों की महिलाएं और अभावग्रस्त अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित रहते हैं, बारंबार किये जाते हैं. सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षय’ को मूक बधिर दृष्टि बाधित रह कर बरदाश्त किया है, पिछले डेढ़ साल में ही नहीं लगातार दस-पंद्रह साल से. औपनिवेशिक काल से चले आ रहे कानूनों को अब तक आजाद भारत की जाब्ता फौजदारी में अक्षत रखा गया है.

सरकारी गोपनीयतावाले कानूनों को दरकिनार भी कर दें, तो राजद्रोह, देशद्रोह, अवमानना संबंधित कानून इसका उदाहरण हैं. यूपीए के शासन काल में पारित इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट खास कर उसका सेक्शन 66 भी इतना अजनतांत्रिक था कि सर्वोच्च न्यायालय को इसे खारिज करने के लिए बाध्य होना पड़ा था. सूचना का अधिकार हो या निजता का अधिकार, यह आबादी के साधन संपन्न और ताकतवर तबके के लिए ही ‘आरक्षित ’ लगते हैं. जिनको इनके संरक्षण की सबसे बड़ी जरूरत है, उनके लिए यह कवच दुर्लभ ही रहता है. इस पाखंड से तत्काल छुटकारा पाने की जरूरत है कि हमारा इतिहास इस सच का साक्षी है कि हम बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक, अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में हमेशा सहिष्णु नहीं रह सके हैं.

जब तक हम इस कमजोरी को कबूल नहीं करते, तब तक माहौल सुधरने की आशा नहीं कर सकते. इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि जहां तक दलों और नेताओं का प्रश्न है, उन सभी का आचरण ‘जनतांत्रिक अर्थात चुनावी राजनीति ’ के दबाव में मौका परस्त तरीके से ‘सहिष्णु’ या ‘असहिष्णु’ होता रहता है. किसी एक सोच को इस देश की ‘शाश्वत-सनातन’ विरासत नहीं करार दिया जा सकता. सर्वधर्म समभाव, गंगा-जमनी तहजीब, पंथ-निरपेक्षता जैसे शब्द आज घिस-घिस कर खोटे सिक्के साबित हो रहे हैं. यह बात गांठ बांधने की जरूरत है कि सहिष्णुता का सवाल सिर्फ सांप्रदायिकता तक सिमटा नहीं है. वैज्ञानिक सोच और तरक्की पसंद समता पोषक का विरोध 21वीं सदी में असंभव है, परंतु इस घड़ी हम यह सोच कर निश्चिंत नहीं बैठे रह सकते कि नौजवान पीढ़ी खुद अपनी पारिवारिक क्षेत्रीय भाषाई सोच, दकियानूसी या सामंती विरासत से मुक्त हो जायेंगे और असामाजिक-अजनतांत्रिक ताकतों से संघर्ष के लिए प्रेरित होंगे.

यह भुलाना भी गलतफहमी होगी कि बिना कोई कीमत चुकाये हम असहिष्णुता का प्रतिरोध कर सकते हैं. कम से कम जब तक नौजवान अपने जनतांत्रिक अधिकारों के बारे में सचेत नहीं होते, तब तक नारे बुलंद करने भर से कुछ हासिल नहीं होनेवाला. अपने प्रति पक्षी के लिए जनतांत्रिक समाज में जगह न छोड़ने के बाद यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि राजनीति जनतांत्रिक और सहिष्णु हो सकती है? यह बहस संसद में नहीं, बल्कि हर घर, सड़क और नुक्कड़ पर होनी चाहिए.

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