बिहार में शराबबंदी का फैसला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की उस प्रतिबद्धता का इजहार है, जो उन्होंने इस साल नौ जुलाई को महिलाओं के एक कार्यक्रम में जाहिर किया था. उन्होंने कहा था कि सत्ता में आने पर शराब की बिक्री पर रोक लगायेंगे. आमतौर पर यह देखा जाता है कि जनता की अदालत में राजनेता वादा करते हैं और सत्ता में आने के बाद भूल जाते हैं.
नीतीश कुमार अलग किस्म के राजनेता हैं. शपथ लेने के छठे दिन मुख्यमंत्री ने अपने वादे को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाया है. इस फैसले को इसलिए अहम माना जा रहा है, क्योंकि बिहार जैसे राज्य को इससे अच्छा-खासा राजस्व मिलता है, जो साढ़े चार हजार करोड़ से ज्यादा है. गौरतलब है कि शराब के टैक्स की आय से सरकार ने ऐसे बुनियादी काम किये, जिससे बिहार की नयी छवि बनी. लेकिन, कई सामाजिक समूहों ने शराब की खपत बढ़ने पर चिंता जाहिर की थी.
शराबबंदी का पहले इरादा करना और अब उसे लागू करने का मुख्यमंत्री का फैसला किसी चुनौती से कम नहीं है. यह चुनौती दो स्तरों पर होगी. पहला, इस फैसले से होनेवाले राजस्व की कमी की भरपाई कैसे होगी? दूसरा, इसे पूरी तरह से कैसे लागू किया जा सकेगा? निश्चय ही सरकार ने इन पहलुओं पर गौर किया होगा. ऐसे वक्त में, जब केंद्र सरकार ने योजनाओं में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने की नीति अपनायी है, बिहार जैसे कम राजस्व वाले राज्य के लिए यह फैसला वाकई साहसी माना जायेगा. सच है कि शराब से समाज में पैदा होनेवाली विसंगतियों के बारे में सवाल उठ रहे थे.
परिवारों में टूट के साथ आपसी रिश्ते प्रभावित हो रहे थे. एक अध्ययन के अनुसार, शराब के सेवन से कुपोषण बढ़ता है और अनेक बीमारियां होती हैं. इस लिहाज से भी इसका स्वागत किया जाना चाहिए कि मुख्यमंत्री ने समाज की आवाज को सम्मान दिया है. लोकतंत्र में सरकारें अपने फैसलों की पुनर्समीक्षा करे और समाज के हित में उसे लागू करे, तो इसे सकारात्मक ही माना जायेगा. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू इस फैसले को सख्ती से लागू करने की होगी. आमतौर पर जहां कहीं भी शराबबंदी लागू हुई है, वहां काला बाजार पांव पसारने लगता है. इससे एक संगठित गिरोह पैदा होता है, जो इतना सशक्त हो जाता है कि बहुत कुछ उसके इशारे पर घूमने लगता है. वास्तविक अर्थों में शराब पर पाबंदी के बावजूद उसकी बिक्री जारी रहती है. इससे न केवल शराबबंदी की मंशा पर पानी फिर जाता है, बल्कि सरकार के राजस्व को चपत भी लगती है. शराबबंदी पर जो आशंकाएं उठती हैं, उनके ठोस कारण हैं.
होता यह है कि न शराब की बिक्री पर रोक लगती है और न कायदे से राजस्व ही मिल पाता है. यानी सरकार और समाज को कुछ भी हासिल नहीं हो पाता. शायद इससे ऐसी परिस्थितियां पैदा होती हैं, जो सरकार को अपना फैसला वापस लेने पर बाध्य कर देती हैं. राज्यों के अांतरिक संसाधन सीमित होते हैं. राज्य सरकारों को विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए पाई-पाई का प्रबंध करना होता है. इस संदर्भ में याद रखना लाजिमी होगा कि आंध्र प्रदेश, हरियाणा, मिजोरम और तमिलनाडु जैसे राज्यों में शराबबंदी लागू हुई थी, पर बाद में कई वजहों से इसे वापस कर लिया गया था. कुछ ऐसे राज्य भी हैं जहां शराबबंदी है, पर शराब के बाजार में रौनक है.
जाम के कारोबार पर ऐसी रोक का कोई अर्थ नहीं. हालांकि, नीतीश कुमार फूंक-फूंक कर कदम रखनेवाले प्रशासक माने जाते हैं. शराबबंदी के बारे में ये पेचीदगियां उनकी नजर में होंगी. यही वजह है कि उन्होंने शराबबंदी के लिए नीति बनाने का फैसला किया है. सरकार शराबबंदी के तमाम पहलुओं को देख-समझ लेना चाहती है ताकि जब यह फैसला लागू हो, तो उसकी प्रक्रिया में कोई कमजोर कड़ी इस बड़े इरादे के टूटने की वजह न बने. जहां तक सवाल शराब की खपत बढ़ने से सामाजिक स्तर पर पड़नेवाले इसके कुप्रभाव का है, तो महिलाएं इस मसले पर सर्वाधिक मुखर थीं. शराबबंदी की मांग को लेकर जगह-जगह उनके आंदोलन हुए. कहने की जरूरत नहीं कि नशाखोरी के इस चलन से सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं ही होती रही हैं.
इसलिए महिलाओं के आंदोलन को ताकत भी मिली. अच्छी बात यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिलाओं की ओर से प्रकट किये गये इरादे को पहचाना. वैसे भी विधानसभा चुनावों में महिलाओं ने नीतीश कुमार को खुले मन से वोट दिया था. बात चाहे 2010 के विधानसभा चुनाव की हो या 2015 की. महिलाओं की शराबबंदी की यह चाहत सरकार के फैसले में परिणत हो रही है, तो यह माना जाना चाहिए कि सरकार और समाज के बीच दोतरफा संवाद से अनेक गुत्थियां सुलझायी जा सकती हैं.
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि शराबबंदी के बारे में बननेवाली नीति समग्रता में शराब से जुड़ी तमाम बिंदुओं तक पहुंचने की कोशिश करेगी, ताकि अगले साल की पहली अप्रैल से जब राज्य में शराबबंदी लागू हो, तो वह सरकार और समाज की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब बने.