मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपने दुमका प्रवास के दौरान एक बार फिर 300 दारोगा की भरती की घोषणा की है. इस लोकलुभावन घोषण के बल पर मुख्यमंत्री भले ही जनता को लुभाने की कोशिश करें, पर झारखंड गठन के बाद अब तक की सभी पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया कुछ और ही बयान करती है.
झारखंड में स्पष्ट स्थानीय नीति की कमी व यहां के दलों के अपने–अपने राजनीतिक लाभ के पचड़े में नियुक्तियां नहीं के बराबर हुईं हैं. शिक्षक नियुक्ति को लेकर अभी शिक्षा मंत्री का बयान राजनीति का केंद्र बिंदु बना हुआ है. ऐसे में मुख्यमंत्री की इस घोषणा पर कितना अमल हो सकेगा, यह तो समय के गर्भ में है.
टेट (शिक्षक पात्रता परीक्षा) पास करने के बाद भी अब तक अभ्यर्थियों की नियुक्ति नहीं हो सकी है. वहीं हेमंत सोरेन ने अपने 100 दिन के कार्यकाल में जिन 200 इंजीनियरों की नियुक्ति की है, उनकी स्थिति यह है कि उन्हें अभी तक तैनाती नहीं मिल पायी है. ऐसे में क्या मुख्यमंत्री को पहले यह प्राथमिकता तय नहीं करनी चाहिए कि स्पष्ट स्थानीय नीति बने? झारखंड की विडंबना यह रही है कि स्थानीय नीति बनाने के मुद्दे पर सरकार तक गिर चुकी है.
गंठबंधन की जितनी भी सरकारें बनीं, उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा करने पर ही ध्यान केंद्रित किया. खाली पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया शिथिल है. हां, जनता को दिखाने के लिए समय–समय पर राजनेता घोषणाएं अवश्य करते हैं.
लेकिन, ऐसी घोषणाओं का क्या फायदा, जब इसका लाभ जनता को मिले ही नहीं? हालत यह है कि स्कूलों में शिक्षकों की कमी है, अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं. सरकारी दफ्तरों में क्लर्को का अभाव है. कामकाज बाधित हो रहा है. बावजूद इसके राजनीतिक पेच के कारण झारखंड में नियुक्तियों की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती है.
झारखंड के साथ बने दूसरे राज्य आज इन मामलों में काफी आगे बढ़ कर विकास की राह पर हैं. लेकिन यहां विकास की बात बेमानी हो चुकी है. झारखंड को इस जकड़न से निकलना होगा.
अगर राज्य का विकास चाहिए तो सरकार को स्पष्ट नीति बनानी होगी. समय रहते अगर इन मसलों को नहीं निबटाया गया तो झारखंड और पिछड़ जायेगा. यहां के होनहार बच्चे दूसरे राज्यों में पलायन कर जायेंगे. यह समय चेतने का है.