महान कथाकार प्रेमचंद ने साहित्य को समाज की मशाल कहा थाö. सत्ता और समाज के अंधेरों को मिटानेवाली मशाल. अपने कर्त्तव्यों-अधिकारों के प्रति सजग साहित्यकार ही यह मशाल उठा सकता है.
हिंदी के वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर घुमड़ते खतरों और समाज में उठते असहिष्णुता के बवंडर के विरोध में जब राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा दिये गये पुरस्कार को लौटाने की घोषणा की, तो शायद ही किसी ने सोचा था कि यह विरोध इतनी तेजी से इतना बड़ा रूप ले लेगा. अब तक दो दर्जन से अधिक साहित्यकारों ने अकादमी के सम्मानों को लौटाने की घोषणा कर दी है, कइयों ने अकादमी से जुड़ी समितियों की सदस्यता छोड़ी है. यह विरोध की भावना अब ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी तक फैलने लगी है. यह सब अभूतपूर्व है. ऐसा नहीं है कि पहले कभी देश के साहित्यकारों ने सार्वजनिक हित के मुद्दों पर इस तरह का रूप अपनाया नहीं था, पर शायद यह पहली बार है, जब देश की विभिन्न भाषाओं के वरिष्ठ साहित्यकारों ने इतनी स्पष्टता और मुखरता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और समाज में सामंजस्य की भावना पर मंडराते खतरों के खिलाफ एकसाथ आवाज उठायी है.
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब तमिलनाडु के दलित साहित्यकार पेरूमल मुरूगन ने अपने लेखक के मरने की घोषणा की थी. यह घोषणा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर समाज की नकारात्मक ताकतों के कसते शिकंजे के खिलाफ थी. होना तो यह चाहिए था यह घटना देश भर की चेतना को झकझोरती, पर ऐसा नहीं हुआ. न समाज जागा, न सरकार ने जरूरी समझा कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में कोई ठोस त्वरित कार्रवाई करे. कुछ लेखकों ने अवश्य आवाज उठायी थी, पर साहित्य अकादमी ने चुप्पी बनाये रखी. फिर अकादमी द्वारा सम्मानित कन्नड़ विद्वान कलबुर्गी की हत्या कर दी गयी. इसके पहले महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे की हत्या कर दी गयी थी. उनका ‘अपराध’ यही था कि वे विवेक की आवाज के उठाने का दुस्साहस कर रहे थे. इन हत्याओं ने भी देश की चेतना की आवाज मानी जानेवाली साहित्य अकादमी पर कोई असर नहीं डाला और अकादमी चुप रही.
सवाल उठता है, क्या देश के साहित्यकारों की प्रतिनिधि संस्था साहित्य अकादमी का यह कार्य नहीं है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर हो रहे हमलों के खिलाफ आवाज उठाये? क्या सिर्फ साहित्यकारों को सम्मानित-पुरस्कृत करना ही उसका काम है?
उदय प्रकाश जैसे लेखक को इस सवाल ने आहत किया था. अकादमी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुश्मनों को सजा तो नहीं दे सकती, पर उनके खिलाफ आवाज तो उठा सकती है. उदय प्रकाश ने अकादमी की चुप्पी के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी समझा. उन्होंने अकादमी द्वारा दिया गया सम्मान लौटाने की घोषणा से अपना असंतोष और गुस्सा व्यक्त किया. इसके बाद कई साहित्यकारों ने सम्मान लौटाये. असंतोष की आग में घी डालने का काम अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के इस वक्तव्य ने कर दिया कि ऐसे मुद्दों पर आवाज उठाना अकादमी की परंपरा नहीं है. फिर देश के संस्कृति मंत्री ने साहित्यकारों के मंतव्य पर सवालिया निशान लगा कर जैसे रही-सही कसर पूरी कर दी. अकादमी के अध्यक्ष की असहज बनानेवाली चुप्पी और संस्कृति मंत्री की असांस्कृतिक सोच ने देश के समूचे विवेकशील तबके को जैसे एक चुनौती दी है. देश भर के लेखकों की प्रतिक्रिया इसी चुनौती का जवाब है.
विरोध के जनतांत्रिक अधिकार और कर्त्तव्य को बहुमत का दावा करनेवाली अविवेकी ताकतें हर तरह से दबाने की कोशिश कर रही हैं. इस व्यवहार से सत्ता के स्वार्थ भले ही सधते हों, पर समाज का ताना-बाना कमजोर ही होता है. उर्दू के प्रसिद्ध शायर वसीम बरेलवी का यह कहना- ‘जब भी समाज का ताना-बाना कमजोर होने लगता है, पहला आंसू लेखक की आंख से टपकता है’, अपने आप में रचनाकारों के कर्त्तव्य को भी परिभाषित करता है. पर साहित्यकार नाम की आंख से आंसू का टपकना पर्याप्त नहीं है, इस आंख में पीड़ा के साथ ही समाज में जोर पकड़ती असंवेदनशील ताकतों के विरुद्ध आक्रोश दिखना चाहिए.
यह आक्रोश अकादमी का विरोध नहीं है, यह उस आपराधिक चुप्पी का विरोध है, जिसके चलते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के दुश्मन अपनी मनमानी करने का दुस्साहस कर रहे हैं. कुछ लेखकों का यह कहना सही है कि अकादमी सरकार नहीं है, और सरकार इस स्थिति का फायदा अकादमी की स्वायत्ता को समाप्त करने के लिए उठा सकती है. अकादमी की स्वायत्ता बनाये रखने की जिम्मेवारी भी साहित्यकारों पर ही है. प्रेमचंद ने साहित्य को समाज की मशाल कहा थाö. सत्ता और समाज के अंधेरों को मिटानेवाली मशाल. अपने कर्त्तव्यों-अधिकारों के प्रति सजग साहित्यकार ही यह मशाल उठा सकता है.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
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