बिहार इन दिनों चुनावी मोड़ पर खड़ा है. प्रधानमंत्री के बिहार पैकेज के विज्ञापनों से मीडिया रंगीन हो रहा है. प्रधानमंत्री किसानों के कल्याण के लिए जहां 3,094 करोड़ रुपये देने की बात कर रहे हैं, वहीं ग्रामीण सड़कों के लिए 13,820 करोड़ रुपये का पैकेज देंगे. इन आंकड़ों को जब गांव में लोगों को सुनाता हूं, तो सब पूछते हैं कि क्या इस पैकेज से ‘चचरी पुल’ के स्थान पर कंक्रीट का पुल बन जायेगा? अब आप पूछेंगे कि भला यह चचरी पुल है क्या? तो आपको बता दें कि चचरी बांस को आपस में बांध कर बनाये गये अस्थायी पुल को कहते हैं. बिहार के कोसी इलाके में बांस के बने पुलों की भरमार है. सरकार जहां तक पहुंचने से बचती है, वहां गांववाले खुद अपनी मेहनत से पुल बना देते हैं, ताकि वे उपेक्षा के शिकार होने से बच सकें.
पुल का महत्व सबसे अधिक ग्रामीण इलाकों में समझा जा सकता है. बरसात के मौसम में जब बेकाबू नदियां या नहर गांव को दो हिस्से में बांट देती हैं, तब भले ही सरकार गांव वालों के दर्द को समझ नहीं पाती, लेकिन चचरी का पुल गांव के दर्द को साझा कर लेता है. देश जहां मेट्रो और फ्लाइओवर्स की बात कर रहा है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में एक सामान्य सा कंक्रीट का पुल भी लोगों को नसीब नहीं हो रहा है. ऐसे में सरकार की तरफ आशा भरी निगाहें डाले जब ग्राम्य समुदाय थक जाता है, तब चचरी पुल उनके लिए सहारा बनता है.
चचरी पुल का निर्माण बहुत आसान है. इसके लिए न किसी टेक्निकल एक्सपर्ट या इंजीनियर की जरूरत होती है, न ही करोड़ों रुपये के टेंडर पास होने की. इसे स्थानीय लोगों के सहयोग से बांस का जुगाड़ करके चंद घंटों में ही बना लिया जाता है. कोसी क्षेत्र में बांस आसानी से उपलब्ध है. पहले बांस को चीर कर बत्तियां बनाते हैं, फिर उन्हें आपस में गूंथ कर जालीदार चचरी बनायी जाती है. यह पुल के ऊपरी हिस्से का काम करती है. उसके बाद नदी में बांस डाल कर खंबे बनाये जाते हैं, जिनके ऊपर इस चचरी को टिका दिया जाता है. पुल की मजबूती खंबों की मजबूती और चचरी में बांस की बत्तियों की गुंथाई पर निर्भर है. जरूरत ना होने पर इस पुल को उखाड़ कर भविष्य के लिए रखा जा सकता है. चचरी पुल कंक्रीट की तरह मजबूत तो नहीं होते, लेकिन इन पर से मोटरसाइकिल आसानी से निकल जाते हैं. इसके लचीले होने के कारण इस पर से सावधानी से गुजरना पड़ता है.
कोसी क्षेत्रों की लगातार यात्र करते हुए मैंने चचरी पुल के इतिहास को जानने की कोशिश की, लेकिन कोई ठोस जानकारी नहीं मिली. आखिर यह पुल प्रचलन में कैसे आया, इसे जानना जरूरी है.
बिहार विधानसभा चुनाव के इस बरसाती मौसम में राजनीतिक दलों को गांव-घर के इन मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा. विकास की बातें करनेवालों को इन चचरी पुलों को स्थायी पुल में बदलने के लिए सोचना होगा. पिछले साल फेसबुक पर जब चचरी पुल की तसवीर साझा की थी, तो लंदन स्थित कवि मोहन राणा ने इस चचरी पुल के नाम एक कविता लिखी थी- ‘टिकोला से लदल गरमियां पार करती हैं चचरी पुल/ मटमैले पानी में जा छुपा दिन अपने सायों के साथ..’
गिरीन्द्र नाथ झा
किसान
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