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बांग्ला संस्कृति, समाज और दुर्गा पूजा

।।अशोक भौमिक।।(चित्रकार एवं लेखक)प्रसिद्ध उपन्यासकार शंकर ने विदेशों में रह रहे बंगालियों द्वारा अनिवार्य रूप से आयोजित होनेवाली दुर्गा पूजाओं पर टिप्पणी की थी कि ‘दुनिया में किसी भी प्रांत में अगर पांच बंगाली रह रहे होंगे तो वे वहां एक दुर्गा पूजा का आयोजन तो अवश्य करेंगे, और अगर यह संख्या बढ़ कर छह […]

।।अशोक भौमिक।।
(चित्रकार एवं लेखक)
प्रसिद्ध उपन्यासकार शंकर ने विदेशों में रह रहे बंगालियों द्वारा अनिवार्य रूप से आयोजित होनेवाली दुर्गा पूजाओं पर टिप्पणी की थी कि ‘दुनिया में किसी भी प्रांत में अगर पांच बंगाली रह रहे होंगे तो वे वहां एक दुर्गा पूजा का आयोजन तो अवश्य करेंगे, और अगर यह संख्या बढ़ कर छह हो जाये तो वे दो गुटों में बंट कर दो दुर्गा पूजा करेंगे’. हालांकि शंकर का यह वाक्य हर साल बढ़ती दुर्गा पूजाओं की संख्या के कम-से-कम एक महत्वपूर्ण कारण को जरूर रेखांकित करता है, लेकिन दुर्गा पूजा के साथ जिस हद तक बंगाल की कला, समाज और संस्कृति जुड़ी हुई है, वह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.

आज जिस रूप में हम दुर्गा पूजा को देख पाते हैं, उसके साथ दरअसल एक लंबी और सार्थक सामाजिक प्रतिरोध का इतिहास जुड़ा है. यह सैकड़ों वर्ष पहले केवल गिने-चुने सामंतों के घरों में आयोजित होनेवाला वार्षिक उत्सव था. जाहिर है, ऐसे आयोजनों में नीची जाति के लोगों और आम प्रजाओं का प्रवेश वर्जित था. साथ ही इन सामंती परिवारों की पूजाओं में एक विकृत प्रतिस्पर्धा भी दिखती थी, जिसके चलते अपनी पूजा को दूसरों से भिन्न और बेहतर बनाने की होड़ में रचनात्मकता को एक नया आयाम भी मिला. सामंतों के इन पारिवारिक आयोजनों के समानांतर आम जनों की पूजा के रूप में ‘बारोवारी दुर्गा पूजा’ (बारह यारों द्वारा आयोजित) की शुरुआत की गयी. इन पूजाओं ने जातिवादी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एक मुहिम की शुरुआत भी की. इन बारोवारी दुर्गा पूजाओं में सामंतों की हिस्सेदारी नहीं थी. सभी वर्ग के, धर्म के और भाषा भाषी जन इसमें भाग ले सकते थे. बाद में इसके और भी विकसित रूप में हम ‘सर्वजनीन दुगोत्सव’ को प़ाते हैं.

बंगालियों के लिए दुर्गा पूजा आरंभ से ही धार्मिक पर्व से ज्यादा एक सांस्कृतिक उत्सव रहा है. इसलिए इसमें मुसलमानों की भागीदारी कोई नयी बात नहीं रही. साथ ही समाज के ब्राrाणवादी रीति-रिवाजों के खिलाफ दुर्गा पूजा के जरिये निरंतर प्रगतिशील हस्तक्षेप भी किया गया. कई पूजाओं में गैर-ब्राह्मण पुजारियों द्वारा पूजा करायी गयी, तो कहीं महिलाओं ने पूजा संचालित की. स्वामी विवेकानंद ने इसी कड़ी में समाज में महिलाओं को उचित स्थान दिलाने के लिए ‘दुर्गा पूजा’ के साथ-साथ ‘कुमारी पूजा’ की शुरुआत की थी. यह सब हालांकि आरंभ में सांकेतिक पहल ही थे, पर इसने सदियों से कुरीतियों के मकड़जाल में फंसे बंगाली समाज में व्यापक परिवर्तनों का सूत्रपात किया.

दुर्गा पूजा पंडालों में उत्कृष्ट साज-सज्जा की बात को दोहराये बगैर हमारा ध्यान बरबस दुर्गा मूर्ति के निर्माण से निर्बाध सृजनशीलता की ओर जाता है. किसी भी धर्म में कलाकारों को देवताओं की प्रतिमा गढ़ने में शायद इतनी आजादी नहीं है, जितनी बंगाल के कलाकारों को, क्योंकि यहां छोटी-छोटी बातों पर ‘लोगों की धार्मिक आस्थाओं को आहत करने’ का युग बहुत पहले खत्म हो चुका है. अपने संकीर्ण विचारों के चलते कट्टरपंथी हिंदू संगठनों ने हुसैन के रचे हिंदू देवी-देवताओं में हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं को आहत होते पाया था, लेकिन वहीं त्रि-नयनी दुर्गा को एक दलित विधवा के रूप में चित्रकार विकास भट्टाचार्य ने चित्रित किया था. अर्पित सिंह द्वारा बनाये दुर्गा के चित्र में, राजीव गांधी की हत्या के बाद, सफेद साड़ी पहने दस भुजाओं वाली दुर्गा को चित्रित किया गया था, जिनके हाथों में पारंपरिक अस्त्रों के स्थान पर चाकू, पिस्तौल आदि अस्त्र दिखाया गया था. मंजीत बावा ने सिंह वाहिनी को निर्वस्त्र बनाया था, तो रामकुमार ने देवी को सड़क पर फ्रॉक पहने भिखारी बच्ची के रूप में दिखाया था. यह सब एक लंबी हिचक-विहीन सृजन की भारतीय परंपरा के चंद उदाहरण मात्र हैं, जिसे बंगाल की कला, समाज और संस्कृति ने मिल कर एक नया आयाम दिया.

बांग्ला साहित्य के लिए दुर्गा पूजा का विशेष महत्व रहा है. बांग्ला में प्रकाशित होनेवाली लगभग सभी पत्रिकाएं (व्यावसायिक से लेकर लघु) इस अवसर पर अपना शारदीय विशेषांक निकालती हैं, जिसमें सभी महत्वपूर्ण लेखक-कवि अपनी रचनाएं तो देते ही हैं, नवोदित रचनाकारों के लिए भी ऐसे विशेषांक एक महत्वपूर्ण मंच का काम करते है. बावजूद मनोरंजन के नित नये साधनों के सामने आ जाने के, बंगाली समाज में साहित्य के प्रति रुचि को बनाये रखने में इन शारदीय विशेषांकों की बहुत बड़ी भूमिका है.

साहित्य के समानांतर संगीत प्रेमियों के लिए भी दुर्गा पूजा का विशेष महत्व है, क्योंकि इस अवसर पर सभी प्रतिष्ठित और नये गायकों के रिकार्डस और सीडी जारी होते हैं. यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यह सभी प्रचलित फिल्मी गीतों से भिन्न और ज्यादा प्रयोगधर्मी होते हैं. दुर्गा पूजा के अवसर पर इन गानों की इतनी मांग रहती है कि केवल बंगाली ही नहीं, बल्कि तमाम अबंगाली गायकों के बांग्ला गीतों के रेकॉडरें को बाजार में लाने का यह सही समय बन जाता है.

दुर्गा पूजा के मौके पर साहित्य, चित्रकला, संगीत आदि रचनाकारों के बीच एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की एक लंबी परंपरा को जिंदा बनाये रखता है और एक ऐसे कलाप्रेमी समाज को विकसित करने में मदद करता है, जहां प्रायोजित आलोचनाओं और स्वयंभू आलोचकों के लिए कोई स्थान नहीं बचता. शारदीय विशेषांक अपने मुखपृष्ठों पर समकालीन चित्रकारों के चित्र प्रकाशित कर साहित्य के पाठकों तक चित्रकला को पहुंचाने की जिम्मेवारी को भी निभाता है.

हम हिंदीभाषी समाज में रहनेवाले लोगों के लिए बंगाली समाज में दुर्गा पूजा के महत्व को समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि समूचे विश्व में धार्मिक उत्सव को केंद्र में रख कर सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को प्रवाहमान बनाये रखने की इतनी सार्थक मिसाल कम ही देखने को मिलती है. उत्सवों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़े ‘आनंद’ शब्द आज हमारे समाज में एक नया अर्थ और एक नयी सार्थकता की मांग करता है. सदियों पुरानी जर्जर धार्मिक संकीर्णताओं, सामाजिक कुरीतियों और राजनीतिक मौकापरस्ती का शिकार इस विशाल हिंदीपट्टी की जनता के लिए दुर्गा पूजा ‘धर्म’ को एक नये अर्थ के साथ सामने लाता है. धार्मिक उत्सवों को नाच-गाना, मिठाई खाना और गले मिलने-मिलाने की पारंपरिक सीमा को तोड़ कर, इन उत्सवों को सांस्कृतिक विकास के लिए उपयुक्त मौके के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत को समझना ही सही मायने में प्रगतिशील होना है.

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