आरके सिन्हा
राज्यसभा सांसद
बीते दिनों असम के तिनसुकिया में संदिग्ध उल्फा उग्रवादियों के हाथों एक हिंदीभाषी व्यापारी और उसकी बेटी की हत्या कर दी गयी. असम में यह कोई पहली घटना नहीं है, जब हिंदी-भाषियों को बेवजह मार डाला गया हो.
पिछले साल नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुवाहाटी यात्र के दौरान अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए उल्फा का कहर जारी रहा था. तब उल्फा उग्रवादियों ने अरुणाचल प्रदेश से सटे तिनसुकिया जिले के बरडुमसा इलाके में लघु चाय बागान के मालिक मुनींद्र नाथ आचार्य के घर पर ग्रेनेड फेंका. लेकिन वह घर के बाहर ही फट गया, इसलिए कोई नुकसान नहीं हुआ.
दरअसल, जब भी उल्फा को केंद्र के सामने अपनी ताकत दिखानी होती है, वह निदरेष हिंदीभाषियों को ही निशाना बनाता है, क्योंकि वे सॉफ्ट टार्गेट होते हैं. फिर से उसने हिंदीभाषियों पर हमले तेज कर दिये हैं.
समस्त देशवासियों को सोचना होगा कि क्या वह उन चंद सिरफिरे लोगों को धूल चटाये या फिर उनके सामने समर्पण कर दे, जो किसी को इसलिए मार देते हैं कि वे हिंदीभाषी प्रदेशों के मूल निवासी हैं.
तिनसुकिया की ताजा घटना के बाद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से उल्फा उग्रवादियों के हाथों दो हिंदी-भाषियों की हत्या के मुद्दे पर बात की. गृहमंत्री ने कहा कि गोगोई ने मुङो बताया कि राज्य सरकार कानून-व्यवस्था बनाने के लिए पहले ही सुरक्षा बल भेज चुकी है.
पर, पूर्वोत्तर के दो राज्यों असम तथा मणिपुर में दशकों से जिस तरह से हिंदीभाषियों को मारा जा रहा है, उस पर केंद्र तथा राज्य सरकारों को मिल कर साझा रणनीति बनानी होगी. ये हिंदीभाषी पूर्वोत्तर में दशकों से बसे हुए हैं. उन क्षेत्रों के विकास में इनकी अहम भूमिका रही है. उन्हें मारा जाना, क्योंकि वे हिंदीभाषी हैं, उसी तरह से गंभीर मसला है, जैसे देश के दूसरे भागों में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ भेदभाव होना.
असम तथा मणिपुर में हिंदीभाषियों की तादाद अच्छी-खासी है. इनमें मारवाड़ी समाज और यूपी-बिहार के लोग भरे पड़े हैं. गुवाहाटी का मारवाड़ी युवा सम्मेलन राज्य में विद्यालयों, चिकित्सालयों, पुस्तकालयों, धर्मशालाओं आदि का निर्माण कर रहा है. इन राज्यों में यूपी, बिहार तथा हरियाणा से जाकर लोग बसे हुए हैं. अब इनका अपने पुरखों के सूबों से सिर्फ भावनात्मक संबंध ही रह गया है. वे अब सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से असमिया या मणिपुरी बन चुके हैं.
दिल्ली में पिछले साल अरुणाचल प्रदेश के नीडो तानिया की हत्या से सारे देश का सिर झुक गया था. अफसोस कि अपने ही देश के पूर्वोत्तर राज्यों के लोग नस्लभेदी टिप्पणियों को सुनने के लिए अभिशप्त हैं.
इन्हें नेपाली, जापानी, चीनी तक कहा जाता है. दिमागी दिवालियापन का चरम है यह मानसिकता. अपने ही देशवासियों को हम पहचान नहीं पा रहे. असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड और सिक्किम से आनेवाले लोगों को शेष भारत के लोग अपने से अलग मानते हैं. आम भारतीय के लिए अरुणाचल, असम, नगालैंड, मिजोरम में फर्क कर पाना मुश्किल होता है, क्योंकि पूर्वोत्तर भारत के प्रति आम उत्तर व दक्षिण भारतीयों की जानकारी बहुत ही कम है.
बेशक, शेष भारत का पूर्वोत्तर को लेकर रुख बेहद ठंडा रहता है.
मणिपुर में वर्षो से आमरण अनशन कर रही इरोम शर्मिला और सैनिक दमन के विरुद्ध जवानों को बलात्कार के लिए ललकारती मणिपुरी माताएं हमें अपने घर की मां, बहन और बेटी नजर नहीं आतीं. एक बार मुझसे असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत ने कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि पूर्वोत्तर के लोगों को उनके जीवनकाल में कभी शेष भारतीय अपना मानेंगे. उनकी पीड़ा को समझा जा सकता था.
यह सच है कि ओलिंपिक विजेता बॉक्सर मैरी कॉम और फुटबाल खिलाड़ी बाईचुंग भूटिया की उपलब्धियों के चलते देश के बहुत से लोगों को पूर्वोत्तर की जानकारी मिली. वरना तो पूर्वोत्तर को जानने-समझने में वे ही जुटे हैं, जो प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहे हैं. मैरी कॉम मणिपुर से आती हैं, तो भूटिया का संबंध सिक्किम से है. अगर मैरी कॉम और भूटिया जैसे आइकॉन को अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने में दिक्कत होती है, तो आप समझ सकते हैं कि पूर्वोत्तर के लोगों का दर्द क्या है.
पिछले साल जनवरी में असम के कोकराझार में पांच हिंदीभाषियों को बस से उतार कर गोली मार दी गयी थी. उस हमले में तीन अन्य घायल भी हुए, जो बिहार से थे. हमारा मीडिया पूर्वोत्तर में उग्रवादियों के हाथों मारे जानेवाले हिंदीभाषियों के मसले को शिद्दत से नहीं उठाता. तमाम खबरिया चैनलों के लिए खबरों का मतलब महानगरों में होनेवाली घटनाओं से ही होता है.
दूसरी बात, केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों को भी जागने की जरूरत है. किसी घटना के बाद गृह मंत्री का राज्य के मुख्यमंत्री से फोन पर बात करना काफी नहीं माना जा सकता.