ऋतुपर्ण दवे
पत्रकार व टिप्पणीकार
पुणो का प्रभात स्टूडियो 1960 में ‘भारतीय फिल्म संस्थान’ बना. 1971 में इसमें टेलीविजन विधा को शामिल किया गया, तब इसका नाम ‘भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान’ (एफटीआइआइ) हो गया.
इससे पहले टेलीविजन संस्थान दिल्ली के मंडी हाउस में हुआ करता था. यह सूचना और प्रसारण मंत्रलय के अधीन एक स्वायत्त संस्था है, जिसका अध्यक्ष ही सर्वे-सर्वा होता है. जाहिर है अध्यक्ष सरकार तय करेगी और यह निर्भर होगा कि सरकार किसकी है.
संस्थान अत्याधुनिक तकनीकी विधा की अद्यतन जानकारी देता है, साथ ही दूरदर्शन के अधिकारियों को प्रशिक्षण भी. हर महीने तकरीबन 35 लाख रुपये से ज्यादा केवल कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होते हैं और करीब 167 कर्मचारी काम करते हैं. तकनीकी प्रयोगशालाओं और गतिविधियों पर हर महीने लाखों रुपये खर्च होते हैं. 11 पाठ्यक्रम चलाये जाते हैं, जिनमें 7 फिल्म पाठ्यक्रम हैं, जो निर्देशन-पटकथा लेखन, चलचित्रंकन, ध्वनिमुद्रण-ध्वनि संरचना, संपादन, अभिनय, कला निर्देशन-निर्माण संरचना, फीचर फिल्म पटकथा लेखन और 4 टेलीविजन पाठ्यक्रम हैं, जिनमें टीवी निर्देशन, इलेक्ट्रॉनिक्स चित्रंकन, वीडियो एडीटिंग-ध्वनि मुद्रण तथा टेलीविजन अभियांत्रिकी के हैं.
संस्थान की उपलब्धि यह कि 55 वर्षो के अपने लंबे सफर में केवल 1338 (उत्तीर्ण) सफल छात्र दिये हैं, जिनमें शबाना आजमी, जया बच्चन, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, सईद मिर्जा, केतन मेहता, जानू बरुआ, रेणू सलूजा, अदूर गोपालाकृष्णन, केके महाजन, संतोष सीवान और संजय लीला भंसाली का नाम शामिल है.
यह संस्थान दुनिया भर के प्रमुख फिल्म और टेलीविजन संस्थाओं के लिए बने सर्वोच्च निकाय ‘सिलेक्ट’ का सदस्य भी है. संस्थान में फीस के अलावा पुणो में रहने, खाने और दूसरी सुविधाओं के लिए भी छात्रों को भारी भरकम राशि चुकानी पड़ती है. ऐसे में सवाल है कि आम भारतीय के लिए यह कितना उपयोगी है?
जब सरकार हर माह इस पर अच्छी-खासी रकम खर्च करती है, तो उसके बदले कितनी प्रतिभाएं हासिल होती हैं? आंकड़ों पर ही भरोसा किया जाये, तो हर वर्ष औसतन 24 लोग ही यहां से उत्तीर्ण हुए हैं.
क्या यह नहीं लगता कि एफटीआइआइ जैसी संस्थाएं केवल सफेद हाथी साबित हो रही हैं? राजनीति का अखाड़ा बन गयी हैं? आये दिन कोई-न-कोई विवाद होता रहता है. 1981 में जब श्याम बेनेगल पहली बार एफटीआइआइ के अध्यक्ष बने थे, तब भी हड़ताल हुई थी.
बावजूद इसके लोगों का मानना है कि संस्थान के चलते भारतीय सिनेमा की तकनीकी, सौंदर्यशास्त्र तथा कथानक में काफी सुधार आया है. इसी कारण भारतीय फिल्में प्रतिस्पर्धा के मामले में दुनिया में अब कहीं भी कम नहीं हैं.
हालांकि, इतना जरूर है कि आज देशभर में तमाम फिल्म ट्रेनिंग इस्टीट्यूट्स हैं, जो नामचीन लोगों की सरपरस्ती में बहुत ही बेहतर काम कर रहे हैं. यदि विवादों की जड़ और जनता के पैसों पर बोझ बनीं ऐसी रेगिस्तानी संस्थाएं बंद भी हो जायें या निजी हाथों में चली जायें, तो कोई पहाड़ नहीं टूटनेवाला है.