प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक पत्र लिख कर झारखंड में आदिवासियों व पिछड़े तबकों के साथ हो रही उत्पीड़न की घटनाओं पर चिंता जतायी है.
साथ ही उल्लेख किया है कि राज्य सरकार ऐसी घटनाओं पर त्वरित कार्रवाई करने में भी उदासीन है. राजनीतिक गलियारों में इस पत्र को लेकर चाहे जो कयास लगाये जा रहे हों, पर पत्र का मजमून सत्य के करीब तो है ही. अन्यथा जब सूबे में कांग्रेस की भागीदारी से सरकार चल रही हो, तो कोई भी बगैर साक्ष्य के आरोप नहीं लगायेगा. अतएव सरकार को इसे गंभीरता से लेना चाहिए. आंकड़े भी बताते हैं कि केवल बीते तीन माह में राज्य भर में एससी, एसटी के साथ उत्पीड़न के 108 मामले दर्ज किये गये.
परंतु, प्राय: इन मामलों में कोई कार्रवाई तक नहीं हुई. खुद राज्य के सीआइडी एडीजी केएस मीणा ने एक एडवाइजरी नोट में भी यह बात कही है. इसकी जानकारी डीजीपी को भी है. यह उस राज्य की हालत है, जो आदिवासियों व अन्य वंचित तबकों को केंद्र में रख कर बना. लेकिन राज्य में आदिवासियों की सामाजिक हैसियत और स्थिति को लेकर न कहीं चिंता है और न ही कोई पहलकदमी. राज्य गठन के 13 साल बीतने को हैं. सभी मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से ही रहे हैं, फिर भी आदिवासियों का भला नहीं हो पाया है.
अकेले देवघर जिले में ही बीते तीन महीनों में सर्वाधिक 47 मामले दर्ज किये गये. दूसरे नंबर पर गिरिडीह जिला है. जबकि कठोर सच्चई यह है कि कई मामले तो दर्ज ही नहीं किये जाते. यह सब बताता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चिंता कितनी जायज है. इससे पूर्व राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी लापरवाह पदाधिकारी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने को कहा था.
प्रदेश में न तो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निवारण) अधिनियम 1989 और न ही एससी/एसटी (उत्पीड़न निवारण) नियमावली 1995 के प्रावधानों का अनुपालन हो रहा है. राज्य में 28 फीसदी जनजाति और 12 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी है. सामाजिक तानेबाने को बरकरार रखना राज्य सरकार का जिम्मा है. प्रशासन उत्पीड़न के ऐसे मामलों में संवेदनशीलता प्रदर्शित करे, तभी हालात में सुधार हो सकता है.