।।संजय कुमार।।
(चुनाव विश्लेषक)
करोड़ों के चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद को सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा तीन अक्तूबर को सजा सुनाये जाने के बाद उनका लंबा राजनीतिक कैरियर अपने अंत की ओर बढ़ सकता है. यह एक ऐसे राजनीतिक दल के लिए बेहद कठिन वक्त है, जिसने बिहार में न केवल डेढ़ दशक तक शासन किया है, बल्कि पिछड़ी जातियों और दलितों के सशक्तीकरण के लिए एक सामाजिक क्रांति की नींव भी रखी.
राजद के कुछ वरिष्ठ नेता मीडिया के कैमरों के सामने साहसी होने का दिखावा करते हुए भले कह रहे हों कि वे इस लड़ाई को जनता की अदालत तक ले जाएंगे, पर मतदाताओं के कुछ वर्गो को लुभानेवाले अपने अध्यक्ष के जेल में रहते पार्टी के लिए चुनावी जंग का सामना करना अकल्पनीय जैसा होगा. पार्टी के शीर्ष नेताओं का मौजूदा बयान अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बनाये रखने के लिए है, पर उन्हें हकीकत का सामना जल्द हो सकता है और हतोत्साहित पार्टी नेता एवं कार्यकर्ता दूसरे राजनीतिक दलों का रुख कर सकते हैं. कांग्रेस उनकी पसंद शायद ही होगी. रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी दलितों से ज्यादा पासवान की पार्टी मानी जाती रही है. ऐसे में राजद में होनेवाली किसी भी टूट का फायदा जदयू या भाजपा को मिलना संभावित है.
नयी राजनीतिक परिस्थितियों में बिहार आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू और सुशील मोदी के नेतृत्व में भाजपा के बीच सीधे मुकाबले की ओर बढ़ने के लिए लगभग तैयार दिख रहा है. ऐसे में कांग्रेस, राजद और लोजपा कुछेक सीटों पर ही मुकाबले की स्थिति में आ सकते हैं, वह भी उम्मीदवार की व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण. मौजूदा संभावनाएं यही उम्मीद जगा रही है कि राज्य में अगला लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार बनाम सुशील मोदी या नरेंद्र मोदी बनाम बिहार होने जा रहा है.
राज्य में मुख्य मुकाबले से लालू प्रसाद और राजद के हटने की स्थिति का सर्वाधिक लाभ जदयू को हो सकता है. लालू प्रसाद के 1990 में सत्ता में पहुंचने के वक्त और बाद के चुनावों में राज्य के मुसलिम मतदाताओं ने बड़ी संख्या में राजद के पक्ष में मतदान किया था. यहां तक कि 2005 के विधानसभा चुनावों में राजद की पराजय के बाद भी मुसलिम मतदाताओं के बीच यही रुझान बना रहा था. लेकिन भाजपा और जदयू का गंठबंधन टूटने के बाद मुसलिम मतदाताओं में इस सवाल पर असमंजस की स्थिति देखी जा रही थी कि आगामी चुनावों में वे नीतीश कुमार का साथ दें, या लालू प्रसाद के साथ ही बने रहें. अब इतना तो तय है कि आगामी चुनावों में लालू प्रसाद की बड़ी जीत की संभावना खत्म हो गयी है. ऐसे में मेरा आकलन है कि भाजपा को 2014 में केंद्र और 2015 में राज्य की सत्ता में पहुंचने से रोकने के लिए राज्य के मुसलिम मतदाता बड़ी संख्या में नीतीश कुमार के पक्ष में मतदान करेंगे. राज्य में 2010 के विधानसभा चुनाव में ही हम मुसलिम मतों का कुछ प्रतिशत जदयू की ओर जाते देख चुके हैं, खासकर उन विधानसभा क्षेत्रों में, जहां जदयू और लोजपा (राजद के साथ गंठबंधन था) उम्मीदवारों के बीच सीधा मुकाबला था. लेकिन आगामी चुनावों में मुसलिम मतदाता बड़ी संख्या में राजद का साथ छोड़ कर नीतीश कुमार के पक्ष में मतदान कर सकते हैं, जिससे जदयू को बड़ा चुनावी लाभ मिल सकता है.
मंडल कमीशन को लेकर विवाद के बाद 1990 के विधानसभा चुनावों के दौरान हुई अन्य पिछड़ी जातियों की एकजुटता ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी. इस एकजुटता में दरार 1995 के विधानसभा चुनावों के दौरान ही पड़ गयी थी, जब जनता दल में टूट हुई और नीतीश कुमार ने अलग होकर समता पार्टी बना ली. अब लालू प्रसाद को चारा घोटाले में सजा सुनाये जाने के बाद अन्य पिछड़ी जातियों की एकजुटता नये सिरे से नीतीश कुमार के पक्ष में हो सकती है. राज्य में पिछले कुछ सालों से खास कर अन्य पिछड़ी जातियों का लालू प्रसाद से मोह भंग हो रहा था, लेकिन विकल्प को लेकर उनमें असमंजस की स्थिति देखी जा रही थी. हालांकि नीतीश कुमार खुद को विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गो, खास कर यादव मतदाताओं को लुभाने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिल पायी है.
पिछले चुनावों में सीएसडीएस की ओर से कराये गये सव्रेक्षणों से पता चला था कि बिहार में यादव मतदाताओं ने बड़ी संख्या में लालू प्रसाद के पक्ष में ही मतदान किया था. लेकिन आगामी चुनावों के दौरान प्रचार अभियान और सक्रिय राजनीति से लालू प्रसाद की संभावित अनुपस्थिति ने नीतीश कुमार के लिए एक नया अवसर मुहैया कराया है. वे अन्य पिछड़ी जातियों को लुभाने की कोशिश कर सकते हैं. हालांकि केंद्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका की संभावनाओं के मद्देनजर वे सिर्फ पिछड़ों के नेता के रूप में खुद को प्रोजेक्ट नहीं करना चाहेंगे. राज्य में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में दो पिछड़ी जातियों, कुर्मी और कोयरी, के मतदाताओं ने बड़ी संख्या में नीतीश कुमार का साथ दिया था. इसके अलावा दलित समुदायों के बीच से भी नीतीश कुमार को अच्छा खासा समर्थन मिला था. इन दोनों स्थितियों को देखते हुए भी यह उम्मीद की जा सकती है कि आगामी चुनावों में अन्य पिछड़ी जातियों की संपूर्ण एकजुटता नीतीश कुमार के पक्ष में हो सकती है. यह स्थिति उनके लिए भाजपा से मुकाबले में काफी मददगार हो सकती है.
दूसरी ओर अगड़ी जातियों में राजपूत मतदाताओं ने पिछले चुनावों में अच्छी-खासी संख्या में राजद के पक्ष में मतदान किया था. अब राज्य की राजनीति में कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प नहीं बन पाने और पार्टी की केंद्र सरकार के खिलाफ लोगों में आक्रोश को देखते हुए यह उम्मीद नहीं ही है कि राजद से टूटे राजपूत मतदाता कांग्रेस के लिए वोट करेंगे. ऐसे में राजद से टूटे राजपूत मतदाताओं का समर्थन भाजपा को मिल सकता है, लेकिन जदयू को पीछे छोड़ने के लिए यह पर्याप्त नहीं होगा.
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि नयी राजनीतिक परिस्थितियों में राजद को सबसे बड़ा नुकसान होगा और कांग्रेस भी नुकसान में ही रहेगी. पहले माना जा रहा था कि दागियों को बचानेवाले अध्यादेश के कारण कांग्रेस को आगामी चुनावों में लालू प्रसाद का साथ मिल सकता है. लेकिन अब राजद और कांग्रेस में गंठबंधन हो भी जाता है तो इससे दोनों में से किसी को बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद नहीं है. जाहिर है, इस वक्त बिहार 2014 के आम चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनाव के लिए एक नये तरह के मुकाबले की ओर बढ़ता दिख रहा है.