पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में 23 वर्षीय पारा मेडिकल छात्रा, जिसे हम’निर्भया’ या ‘दामिनी’ के नाम से पुकारते हैं, के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है.
कोर्ट ने चारों जीवित बालिग आरोपितों को दुष्कर्म और हत्या का दोषी करार दिया है. घटना के करीब नौ माह बाद आया यह फैसला दुष्कर्म पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के मामले में एक नजीर बन सकता है, बशर्ते मीडिया, सिविल समाज, राजनीतिक नेतृत्व व न्यायपालिका दुष्कर्म के मामलों में आगे भी इसी तरह की तत्परता दिखाये. निर्भया के गुनहगारों को न्याय की अदालत में दोषी करार दिया जाना अपने आप में एक बड़ी लड़ाई की शुरुआत है.
एक तरफ जहां देश में हर मिनट औसतन तीन स्त्रियों को हैवानियत का शिकार बनाया जा रहा है, दुष्कर्मियों को सजा देने के मामले में हमारी व्यवस्था निराशाजनक रूप से अक्षम नजर आती है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में दुष्कर्म के चार आरोपितों में से सिर्फ एक को सजा दी जाती है.
निर्भया मामले के बाद उपजे व्यापक जनाक्रोश को देखते हुए सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा समिति की सिफारिशों पर अमल करते हुए दुष्कर्म निरोधी कठोर कानूनों का निर्माण किया है. लेकिन, सिर्फ कानून बना कर इस मर्ज को दूर करना मुमकिन नहीं है.
इसका प्रमाण यह तथ्य है कि सिर्फ दिल्ली में ही इस साल अब तक दुष्कर्म के 1000 से ज्यादा मामले दर्ज किये गये हैं. पिछले दिनों मुंबई में एक फोटो पत्रकार के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने इस अपराध की गहरी जड़ों से हमें रूबरू कराया था.
यहां ध्यान में रखना जरूरी है कि मीडिया में प्रमुखता से छपनेवाले दुष्कर्म के मामले, कुल दर्ज मामलों की तुलना में काफी कम होते हैं, कुल दर्ज मामले वास्तविक मामलों से. ऐसे कई मामले सामाजिक बदनामी के भय और पुलिस के असहयोग के कारण दर्ज ही नहीं हो पाते.
जाहिर है, इस अपराध के खिलाफ समाज की जंग अभी बहुत लंबी और कठिन है. निर्भया एक प्रतीक बनी है– हिम्मत और इंसाफ की. जरूरत इस प्रतीक से आगे जाने और उन हजारों पीड़ितों को भी इंसाफ दिलाने की है, जिनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं, पर जिनकी आंखों में इंसाफ पाने का वैसा ही सपना जीवित है, जैसा ‘निर्भया’की आंखों में था.