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पत्रकारिता के साथ लोकतंत्र खतरे में

फौजिया रियाज स्वतंत्र टिप्पणीकार विश्वभर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों से अब वे सच लिखने से बचने लगे हैं. भारत में अभी ऐसा वक्त नहीं आया है, लेकिन जिस तरह पत्रकारों पर होनेवाले हमलों और हत्याओं के मुकदमे बेनतीजा साबित होते जा रहे हैं, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए खतरा तो है […]

फौजिया रियाज
स्वतंत्र टिप्पणीकार
विश्वभर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों से अब वे सच लिखने से बचने लगे हैं. भारत में अभी ऐसा वक्त नहीं आया है, लेकिन जिस तरह पत्रकारों पर होनेवाले हमलों और हत्याओं के मुकदमे बेनतीजा साबित होते जा रहे हैं, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए खतरा तो है ही.
पिछले साल दुनियाभर में करीब 60 पत्रकार मारे गये. 2013 में यह आंकड़ा 70 के पास था. एक तरफ इन पत्रकारों में सीरिया और इराक में आइएसआइएस के चंगुल में फंसे कलमधारी शामिल हैं, वहीं दूसरी तरफ ओड़िशा में काजू उत्पादन के कारोबार में हो रही बाल मजदूरी से परदा उठाने की कोशिश करनेवाले तरुण कुमार आचार्य का नाम भी मौजूद है. एक तरफ इन आंकड़ों में आंध्रा प्रभा नाम के तेलुगू अखबार में तेल माफिया पर स्टोरी कर रहे एमवीएन शंकर हैं, वहीं साल 2015 की शुरुआत ही पेरिस में शार्ली हेब्डो पर हमले के साथ हुई. कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) की रिपोर्ट के अनुसार, साल 1992 से अब तक दुनियाभर में 730 से ज्यादा पत्रकारों का जनाजा कत्ल ने उठाया है. इन्हीं रिपोर्ट्स को ठीक से खंगाला जाये, तो हम पायेंगे इनमें से 90 प्रतिशत केसों में किसी को कोई सजा नहीं सुनायी गयी.
प्रजातंत्र में पत्रकार होने की पहली शर्त होती है बेङिाझक सच लिखना. दूसरी शर्त, सत्ताधारियों से बेधड़क सवाल पूछना. तीसरी शर्त, मजलूमों और अल्पसंख्कों को आवाज देना. पत्रकार चाहे या ना चाहे, जब वह कोई खबर दुनिया के सामने रखने की ठानता है, तो यह उसकी पेशेवर जिम्मेवारी है कि वह अपने सामने मौजूद सच से आंखें ना चुराये. मार्टिन लूथर ने कहा था ‘जो सच तलाशते हैं, उन्हें साथ में मुसीबत भी मिलती है’.
ईमानदारी से काम कर रहे पत्रकारों को मिलनेवाली मुसीबत, नौकरी से हाथ धोना, मार-पीट और कई बार मौत की शक्ल भी इख्तियार कर लेती है. जिन देशों में ईमानदारी से खबर लिखनेवाले सुरक्षित नहीं हैं, जहां उद्योगपतियों के कारनामों पर नजर रखनेवाले संवाददाता नौकरी से बर्खास्त होते हैं, तेल, कोयला या पानी माफिया का नाम उजागर करनेवाले पत्रकार किसी भी दिन मौत के घाट उतार दिये जाते हैं, पर सलाखों के पीछे कोई नहीं जाता; वे देश लोकतांत्रिक नहीं हो सकते. नकली शराब के धंधे पर सच लिखनेवाले की मौत का सच ही अगर उजागर ना हो, धर्म और जाति के नाम पर हो रही नाइंसाफी पर कलम घिसनेवाले को खुद मरने पर इंसाफ ना मिले, तो उस जनतंत्र का लिहाफ ऊपर से कितना भी सफेद हो, अंदर कीड़े पड़ चुके हैं.
सीपीजे की रिपोर्ट्स के मुताबिक, पिछले 25 साल में भारत के अलग-अलग हिस्सों में मारे गये पत्रकारों का 30 फीसदी वर्ग भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों पर रिपोर्टिग कर रहा था.
इन आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है, लेकिन जब कर्नाटक के पत्रकार नवीन सुरिनजे के साथ हुई घटना याद आती है तब लगता है, असल में पत्रकारों के खिलाफ षड़यंत्र रचना इतना मुश्किल भी नहीं. जुलाई, 2012 में कर्नाटक के एक न्यूज चैनल में काम करनेवाले नवीन अपने कैमरामैन के साथ एक घटनास्थल पर पहुंचे. एक ‘होम स्टे’ पर हो रही बर्थडे पार्टी में एक उपद्रवी हिंदू संगठन ने घुस कर लड़के-लड़कियों को पीटा. नवीन ने इसका वीडियो बनाया. इस खबर का टाइटल था ‘तालिबनाइजेशन ऑफ मेंगलोर’, इसी खबर के आधार पर दोषियों की शिनाख्त की गयी. नवंबर, 2012 में पुलिस ने इसी मामले में नवीन को गिरफ्तार किया. पुलिस ने नवीन पर और उपद्रव मचानेवालों पर एक जैसे मामले तय किये थे, जिसके चलते नवीन को साढ़े चार महीने जेल में रहना पड़ा.
अभी कुछ महीने पहले ही हरियाणा में खुद को संत कहनेवाले रामपाल के आश्रम में जिस तरह पुलिस ने पत्रकारों पर लाठियां चलायीं, वह अधिकारियों के बीच प्रेस के प्रति पनपती नफरत साफ दिखाता है. जब आपराधिक या कट्टरपंथी गिरोह किसी पत्रकार पर हमला करते हैं, किसी मीडिया हाउस को निशाना बनाते हैं, तो दुनियाभर को इन संगठनों के भीतर छुपा फ्री प्रेस का डर दिखता है. सभी देश मिल कर इन हमलों की आलोचना करते हैं, मगर सच का ऐसा ही डर अलग-अलग देशों में ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों से लेकर पुलिस और राजनीतिक पार्टियों में भी नजर आता है. पुलिस जब पत्रकारों को पीटे, कैमरा तोड़े, तो इतना तो समझ आता ही है कि सिस्टम में कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ है. शायद यही वजह है कि पत्रकारों की हत्याओं का सच कम ही सामने आता है.
अल्बर्ट कैमस ने कहा था, ‘एक स्वतंत्र प्रेस अच्छा और बुरा दोनों हो सकता है, लेकिन बिना स्वतंत्रता के प्रेस केवल बुरा ही होगा’. पैलिस्टिनीयन सेंटर फॉर डेवलपमेंट एंड मीडिया फ्रीडम (2014) के सर्वे ने पाया कि गाजा में रहनेवाले 80 प्रतिशत पत्रकारों ने खुद पर ही सेंसरशिप लगायी हुई है.
यानी सच्चई को लिखनेवाले ये पत्रकार अब ऐसा कुछ नहीं लिखते, जिससे उनकी जान पर खतरा हो. वे सच देखते हैं, लेकिन सच लिखते नहीं हैं. हालांकि, भारत में अभी ऐसा वक्त नहीं आया है, लेकिन जिस तरह से पत्रकारों पर होनेवाले हमलों और हत्याओं के मुकदमे बेनतीजा साबित होते जा रहे हैं, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए एक खतरा तो है ही.

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