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आपने बेटियां पैदा की हैं, गुलाम नहीं!

शैलेश कुमार प्रभात खबर, पटना नगालैंड के दीमापुर में बलात्कार के एक आरोपी को भीड़ ने मार कर लटका दिया. वैसे तो यह घटना निंदनीय है और कानून को अपने हाथों में लेने का अधिकार किसी को नहीं है. ‘भीड़ के इंसाफ’ की प्रवृत्ति किसी भी समाज को वहशी बना सकता है. लेकिन यहां यह […]

शैलेश कुमार

प्रभात खबर, पटना

नगालैंड के दीमापुर में बलात्कार के एक आरोपी को भीड़ ने मार कर लटका दिया. वैसे तो यह घटना निंदनीय है और कानून को अपने हाथों में लेने का अधिकार किसी को नहीं है. ‘भीड़ के इंसाफ’ की प्रवृत्ति किसी भी समाज को वहशी बना सकता है.

लेकिन यहां यह जरूर विचारणीय है कि आखिर ऐसी नौबत आयी क्यों? भीड़ इतनी ज्यादा उग्र क्यों हो गयी और महिलाओं ने इसमें क्यों बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. एक ओर तो हमने रविवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया, वहीं दूसरी ओर हरियाणा में हुए एक सर्वेक्षण में एक बेहद खतरनाक सच सामने आया कि हरियाणा के नब्बे प्रतिशत लोग बेटा चाहते हैं, बेटी नहीं.

वहीं एक और रिपोर्ट ने बताया कि पिछले दो माह में दिल्ली में करीब 300 बलात्कार की घटनाएं हुईं. कहते हैं सच कड़वा होता है, तभी तो बीबीसी ने ‘निर्भया’ का बलात्कार करने के जुर्म में जेल में सजा काट रहे एक मुजरिम का बयान जब डॉक्यूमेंट्री में दिखाया, तो हर जगह हड़कंप मच गया. भारत का कैसा चेहरा दुनिया के सामने जा रहा है, इसे लेकर सरकार भी चिंतित हो गयी. लेकिन यह चिंता उस समय क्यों नहीं दिखती, जब महिलाओं की जिंदगी और गरिमा के साथ खिलवाड़ किया जाता है. बेटियों को लोग अपने घरों की इज्जत बताते हैं. तब कहां चली जाती है इज्जत जब उन्हीं बेटियों पर वे पाबंदी लगाते हैं?

उनके निर्णय को कोई महत्व नहीं देते? अरे! जब आप दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी की पूजा करते हैं, नारी को देवी का स्वरूप मानते हैं, तो उन्हीं बेटियों को जन्म देकर आप यह क्यों मानते हैं कि आपने उन पर एहसान किया है? क्या जन्म देने का यह मतलब है कि वे जिंदगी पर आपकी गुलामी करें? वे कितना पढ़ेंगी, क्या खायेंगी, क्या पहनेंगी, कहां जायेंगी, किससे शादी करेंगी, कब हंसेंगी, कब रोयेंगी, सब निर्णय आप ही करना चाहते हैं. भला यह कैसी मानवता है? समाज क्या कहेगा, इसके नाम पर बेटियों पर पाबंदी लगा कर आप अपनी प्रतिष्ठा आखिर कितनी भी बढ़ा लें, लेकिन क्या कभी अपनी बेटी, अपनी अंतरात्मा और अपने भगवान से नजरें मिला कर आप कह पायेंगे कि आपने सही काम किया है? समाज भी तो आपसे ही बना है.

समाज की सोच भी तो तभी बदलेगी न, जब आप अपनी सोच बदलेंगे. बेटियों का जरा बड़प्पन देखिए. इतना सब कुछ होने पर भी मां-बाप को ही सर्वोपरि मान कर उनके निर्णय में शामिल होकर अपनी खुशियों की कुरबानी दे देती हैं. बहन अपने भाई के लिए कुरबानी देती है. मां अपने बेटों के लिए. पत्नी अपने पति के लिए. हर जगह कुरबानी देकर भी क्या मिलता है आखिर बेटियों को? पैरों में जंजीरें? जबरन विवाह? छेड़खानी? बलात्कार? हत्या? एक बार सच्चे मन से अपनी आत्मा की आवाज सुनिए. खुद से नजरें मिला पाने का रास्ता मिल जायेगा.

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