।। कृपाशंकर चौबे ।।
(एसोसिएट प्रोफेसर, म. गां.अं. हिंदी विवि)
कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में केंद्र सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भले तल्ख लग रही हो, हालात कहीं उससे भी ज्यादा तल्ख और भयावह हैं. घोटाले पर सीबीआइ की स्टेटस रिपोर्ट केंद्र सरकार से साझा करने का एक आशय यह है कि सीबीआइ राजनीतिक दबाव में काम करती रही है. इसीलिए केंद्र सरकार अपने विरोधी नेताओं को सीबीआइ का डर दिखाती रही है.
इस आशय का आरोप सपा नेता मुलायम सिंह यादव सार्वजनिक तौर पर लगा चुके हैं. यदि सीबीआइ का दुरुपयोग सत्ताधारी दल विरोधियों को ‘ठीक’ करने के लिए करे, तो उससे लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा क्षत-विक्षत होती है. कोयला घोटाले में सीबीआइ के हलफनामे की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणियां की हैं, उससे न्यायपालिका की साख बढ़ी है. सुप्रीम कोर्ट की फटकार में यह अंतर्निहित है कि केंद्रीय कानून मंत्री अथवा प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ अधिकारी से स्टेटस रिपोर्ट साझा करने के बाद वह रिपोर्ट निष्पक्ष नहीं रह गयी.
कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार आज इतनी संकटग्रस्त है कि उसे प्रणब मुखर्जी की कमी का एहसास हो रहा होगा. भाजपा प्रधानमंत्री और कानून मंत्री के इस्तीफे की मांग पर जिस तरह अड़ी हुई है, उससे यह कहना मुश्किल है कि कोयले की यह आग कब बुझेगी. सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भाजपा के लिए इस मामले को आगे ले जाने का अवसर बढ़ गया है. भाजपा इस अवसर को हाथ से क्यों जाने देगी? अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की मुहिम ने केंद्र सरकार की छवि पहले ही खराब कर रखी है.
सरकार ने भ्रष्टाचार और काले धन के सवाल पर अब तक ऐसा कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जिससे जनता में संदेश जाये कि वह भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कटिबद्घ है. इस पूरे परिवेश का लाभ उठाने के लिए मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने संसद को ही अचल कर दिया है. सवाल है कि सदन को नहीं चलने देकर धन की बरबादी क्या एक तरह का संसदीय घोटाला नहीं है? यह नहीं भूलना चाहिए कि संसद नहीं चलने देने के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही जनता का विश्वास उठने का खतरा भी बढ़ता जाता है.
पूरा देश चाहता है कि सच्चाई सामने आये और कॉरपोरेट घरानों के हाथ में संसदीय लोकतंत्र को गिरवी नहीं रहने दिया जाये, लेकिन क्या देश के सामने सिर्फ यही मसला है? जनहित के दूसरे मामले नहीं हैं? उन मामलों की अनदेखी क्या उचित है? संसद जब चलने दी जायेगी, तभी तो उन मामलों पर भी बहस होगी. संसद नहीं चलने देकर तो सांसद यही बोध कराते हैं कि वे अपने ऊपर सौंपी गयी भूमिकाओं का निर्वाह करने से परहेज कर रहे हैं.
सवाल है कि कि जनप्रतिनिधि यदि अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और भूमिकाओं का निर्वाह नहीं करेंगे तो संसद या विधानमंडल जनता के मंच के रूप में कैसे उभरेंगे? हाशिये के लोगों की जुबान नहीं बनने के कारण ही संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं व विधान परिषदों को आम आदमी के लिए पूरी तरह प्रासंगिक नहीं बनाया जा सका है. जनता की बुनियादी जरूरतों को हल करने का मकसद अब भी पूरा नहीं हो पाया है.
वाद-विवाद और संवाद से ही लोकतंत्र चलता है. विरोधी मत को उचित मान देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है. लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत ही यही है कि वह विरोधी विचार को सहने की शक्ति और विविधता को संरक्षण देता है. अनौचित्य को टोकना जन प्रतिनिधियों का ही नहीं, वरन हर जागरूक नागरिक का भी फर्ज है, पर टोकने का तरीका शिष्ट होना चाहिए. सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसदों से यही अपेक्षा रहती है कि वे तमाम विरोधों और वाद-विवाद के बावजूद संसदीय सौजन्यबोध और राजनीतिक शिष्टाचार को कायम रखेंगे. किंतु बहुधा वे इस पर खरा नहीं उतरते. आज हालत यह है कि 150 दिन की जगह संसद 50 दिन भी नहीं चलती.
जिस तरह विपक्षी भाजपा को प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगने का अधिकार है, उसी भांति उस मांग को अस्वीकार करने का अधिकार सरकार को है. लेकिन इसका आशय यह नहीं कि देश की सबसे बड़ी पंचायत को अचल ही कर दिया जाये. यूपीए 1 और 2 सरकार में विपक्ष ने कई बार संसद में गतिरोध पैदा किया.
संसद ठप करने का संकेत तो यही है कि बहस और संवाद के प्रति अधिकतर जनप्रतिनिधियों की रुचि ही नहीं है. संसद के दोनों सदनों में विशेष उल्लेख काल भी कई बार कोरम के अभाव में स्थगित करना पड़ता है. सांसदों को यह बोध कब होगा कि संसद सुचारु रूप से चले, तभी वह जनता के काम कर सकेगी.