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खिचड़ी रे तोरो गुण गैलो न जाए..

।।दीपक कुमार मिश्र ।।(प्रभात खबर, भागलुपर)मि ड-डे मील यानी मध्याह्न् भोजन. लेकिन स्कूलों में बच्चों को दिये जानेवाले इस भोजन को आम बोल-चाल की भाषा में खिचड़ी ही कहा जाता है. स्कूलों में भले हो रोज मिड-डे मील का मेन्यू बदलता है, लेकिन पुकारा जाता है खिचड़ी के नाम से ही. खिचड़ी की महिमा कम […]

।।दीपक कुमार मिश्र ।।
(प्रभात खबर, भागलुपर)
मि ड-डे मील यानी मध्याह्न् भोजन. लेकिन स्कूलों में बच्चों को दिये जानेवाले इस भोजन को आम बोल-चाल की भाषा में खिचड़ी ही कहा जाता है. स्कूलों में भले हो रोज मिड-डे मील का मेन्यू बदलता है, लेकिन पुकारा जाता है खिचड़ी के नाम से ही. खिचड़ी की महिमा कम नहीं है. अपने यहां तो मकर संक्रांति पर्व पर खिचड़ी खाने की परंपरा है. यहां तक कि इस पर्व को बहुत जगह खिचड़ी ही कहा जाता है. डाक्टर और वैद्य से लेकर जेल तक में इसके गुण की महिमा गायी जाती है. शल्य क्रिया के बाद डॉक्टर पहले मूंग की खिचड़ी खिलाने की बात कहते हैं. अनशन या भूख हड़ताल के बाद खिचड़ी खाने की सलाह दी जाती है, क्योंकि खिचड़ी सुपाच्य है.

बस खिचड़ी मात खा जाती है मेहमानों के मामले में. अगर घर में कोई मेहमान आया होता है, तो उसे खिचड़ी खिलाने से परहेज किया जाता है. हालांकि अगर खिचड़ी के चार यार- घी, पापड़, दही और अचार मौजूद हों, तो इसके स्वाद का कोई जवाब नहीं. जेल में बंदियो को भले ही अलग-अलग तरह का खाना मिलता है, लेकिन यह एक जुमला है कि जेल में चक्की पीसोगे और खिचड़ी खाने को मिलेगी. खिचड़ी में कई चीजें मिलायी जाती है इसलिए किराना या परचून की दुकान को खिचड़ी-फरोश की दुकान भी कहा जाता है. अगर किसी काम में कई लोग शामिल होते हैं, तो यह भी कहा जाता है कि क्या खिचड़ी पका रहे हो. और, सबसे बढ़ कर है बीरबल की खिचड़ी, जिसका लोहा अकबर भी मान गये थे.

कहने का तात्पर्य है कि खिचड़ी गुणी है. लेकिन जब से मिड-डे मील का दुखद हादसा हुआ है, तबसे खिचड़ी शब्द से डर लगने लगा है. पता नहीं खिचड़ी कब जानलेवा बन जाये. आम लोग व बच्चे भले ही खिचड़ी शब्द से सिहर जा रहे हों, लेकिन हमारे नेताओं को तो देखिए. राम नाम की तरह खिचड़ी की माला जप रहे हैं. व्यवस्था को कोसने का एक नया हथियार बन गयी है खिचड़ी. इन लोगों ने शायद ही कभी इन बच्चों या गरीबों के संग खिचड़ी खायी हो, लेकिन खिचड़ी पर इनके विशेष ज्ञान की दाद देनी होगी. अभिभावक स्कूल की खिचड़ी का नाम सुनना नहीं चाह रहे. वे बच्चों को घर से खाना बना कर दे रहे हैं. खिचड़ी अचानक आम लोगों से दूर हो गयी, तो नेताओं के लिए हॉट केक. खिचड़ी पर पक्ष-विपक्ष की राय सुन कर आश्चर्य इसलिए नहीं होता है कि नेताओं की फितरत से अब हर कोई वाकिफ हो गया है. नेताओं को न तो आम लोगों से मतलब है और न ही खिचड़ी से. बस उन्हें तो मतलब है अपनी राजनीतिक खिचड़ी से. राजनीति की खिचड़ी पकती रहे और बातों से क्या मतलब. लेकिन, बयानों की खिचड़ी से बेहतर है ऐसी खिचड़ी बने कि फिर सारण की घटना न दुहरायी जाये.

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