बरसों पहले शुरू हुए इस सिलसिले के घाव ताजा बने हुए हैं और उनके भरने की कोई उम्मीद दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रही. तबाह-ओ-बरबाद कश्मीर के इतिहास का एक अध्याय 19 जनवरी, 1990 से शुरू होता है.
उस दिन कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर हिंसक विद्रोह शुरू हुआ था, जिसका कहर घाटी के कश्मीरी पंडितों पर टूटा. पाकिस्तान द्वारा दी गयी क्लाश्निकोव राइफलें लिये आतंकवादियों और आजादी के समर्थकों की भीड़ ने सुनियोजित तरीके से पंडितों के घरों पर हमला किया और उन्हें कश्मीर छोड़ देने को कहा. आधिकारिक आंकड़ों में सिर्फ 219 पंडितों के मारे जाने का उल्लेख है, लेकिन माहौल में पसरे दहशत ने करीब चार लाख पंडितों को कश्मीर छोड़ कर देश के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया.
घाटी में अमन-चैन की सरकारी घोषणाओं के बावजूद 25 बरस बाद भी वे वापस नहीं लौट सके हैं. इन हमलों के अगले दिन 20 जनवरी, 1990 को प्रदर्शनकारियों पर भारतीय सुरक्षा बलों की गोलीबारी में भी कई लोग मारे गये थे. जम्मू-कश्मीर में जनवरी, 1990 से शुरू हुई हिंसक वारदातों में 18 जनवरी, 2015 तक 43,500 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. कश्मीर में असंतोष आज भी है, कश्मीरी पंडित अब भी विस्थापित हैं, सरकारें बनती-बदलती रहीं, लेकिन अमन की आस पूरी नहीं हो सकी है और कश्मीर आज दुनिया के सबसे अधिक सैन्य उपस्थिति वाले क्षेत्रों में शामिल है. बहरहाल, कश्मीर घाटी में अमन-चैन के लिए चुनाव और बंदूकों से परे कुछ ठोस मानवीय पहलों की भी जरूरत है. इसके लिए जम्मू-कश्मीर की त्रसदी को 1947 के जम्मू दंगों और मुसलमानों के पाक-अधिकृत कश्मीर में पलायन, राज्य सरकार के साथ-साथ भारत और पाकिस्तान की नीतियों तथा स्थानीय समुदायों के बीच अविश्वास की पृष्ठभूमि में भी गंभीरता से समझना होगा.