19.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आदिवासी नुमाइश की चीज हैं?

सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासियों के जीवन की प्रचंड वंचनाओं पर परदा डालते हुए उन्हें सशरीर नुमाइश की वस्तु बनाने के इस सिलसिले की जितनी निंदा की जाये, कम है. उनकी इस नुमाइश को एक राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर भी देख सकते हैं, जो बेहद सभ्य अंदाज में हर जगह चलती रहती है. सर्वोच्च […]

सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
आदिवासियों के जीवन की प्रचंड वंचनाओं पर परदा डालते हुए उन्हें सशरीर नुमाइश की वस्तु बनाने के इस सिलसिले की जितनी निंदा की जाये, कम है. उनकी इस नुमाइश को एक राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर भी देख सकते हैं, जो बेहद सभ्य अंदाज में हर जगह चलती रहती है.
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी अंडमान की जारवा आदिम जनजाति के संरक्षित इलाकों में ‘बाहरी तत्वों’ द्वारा घुसपैठ का सिलसिला कब तक चलता रहेगा? यह सवाल नये सिरे से समीचीन हो उठा है. ताजा मसला दो फ्रांसिसी फिल्मकारों- एलेक्जेंड्रे डेरेमस और क्लेर बिलवर्ट- को लेकर उठा है, जिन्होंने अंडमान द्वीपसमूह के जारवा में जाकर वहां के मूल निवासियों पर डॉक्युमेंटरी बनायी. उत्तरी और मध्य अंडमान के पुलिस अधीक्षक के हवाले से यह खबर छपी कि स्थानीय पुलिस इमिग्रेशन कार्यालय से संपर्क करके भारत में उनके आगमन के रिकॉर्ड खंगाल रही है और जब उसे यह जानकारी उपलब्ध होगी, वह इस मामले में कार्रवाई करेगी. पुलिस महकमे की तरफ से जल्द ही इन दोनों के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी किया जायेगा.(टीओआइ, 27 अक्तूबर, 2014)
मानव वंशविज्ञानियों के मुताबिक जारवा जनजाति अफ्रीका महाद्वीप से निकले आदिमानव के वंशज हैं, जो बहुत सरल जिंदगी जीते हैं.
पुरुष तीर-धनुष से सूअर एवं कछुओं का शिकार करते हैं. महिलाएं फल और शहद इकट्ठा करती हैं. उनका कोई ईश्वर नहीं है. जब कोई मरता है, तो उसे पेड़ के नीचे रख दिया जाता है, जब तक उसका ढांचा न बचे. 1998 में ही वे जंगल के बाहर पहली बार निकलने लगे और बाहरी संस्कृति से संपर्क में आकर कई अपरिचित रोगों का शिकार बने. आज उनकी संख्या महज कुछ सौ तक है. उनके संरक्षण के कदम नहीं उठाये गये, तो वहां की अन्य जनजातियों की तरह उनके भी समाप्त हो जाने का खतरा है.
पिछले साल जारवा आदिवासी स्त्रियों को बिस्कुट के पैकेट के लिए अर्धनग्नावस्था में नचाते हुए बनाये गये विडियो क्लिप का मामला सूर्खियां बना था. उसके बाद ओड़िशा के कोरापुट जिले में अर्धनिर्वस्त्र बोंडा जनजातियों को देखने के लिए विदेशी-देशी मुसाफिरों से बनी ‘मानवीय सफारी’ का मामला भी चर्चा में आया था. एक स्थानीय अखबार ने इस मसले पर बड़ी स्टोरी की थी, जिसके बाद सरकार जागी और जांच में आदिवासियों के आत्मसम्मान के साथ किये जा रहे खिलवाड़ की बात प्रमाणित भी हुई. मामला इतना आगे बढ़ गया कि उनके इलाके में बाहरी लोगों के आने-जाने पर अनाधिकृत तरीके से पाबंदी लगायी गयी. उम्मीद है कि अंडमान पुलिस इस मामले में अपनी गंभीरता का परिचय देगी और न केवल इन फिल्मकारों, बल्कि उन तमाम लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेगी, जिन्होंने उनका साथ दिया.
कुछ ही समय पहले ऐसा एक और प्रमाण सामने आया था, जब पता चला था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2002 में लगायी गयी पाबंदी के बावजूद अंडमान की जारवा जनजाति के लिए संरक्षित इलाकों में जारवा पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है. आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय अंतरराष्ट्रीय मुहिम ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ की ओर से यह प्रश्न पूछा गया कि वैकल्पिक समुद्र मार्ग उपलब्ध होने के बावजूद ऐसा क्यों किया जा रहा है? (द हिंदू, 20 जुलाई 2014). अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझ रही जारवा जनजाति के क्षेत्रों में पर्यटकों की बढ़ती आवाजाही को देखते हुए 2002 में ही सुप्रीम कोर्ट ने उन क्षेत्रों से गुजर रही सड़क को बंद करने का आदेश दिया था.
जारवा क्षेत्रों में नुमाइश देखने के लिए लोगों की घुसपैठ हमें 19वीं सदी में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से ब्रिटिश अधिकारी एलेक्जेंडर डनलप द्वारा अगवा कर लंदन लायी गयी सारतीजे बार्तमान के किस्से को जिंदा करती है. लंदन में इस आदिवासी महिला को, जिनका पृष्ठभाग काफी निकला हुआ था, ‘हाटेनटॉट वीनस’ के तौर पर कई मंचों से प्रदर्शित किया गया और मालाओं से लदी, नाचती, गाती तथा धूम्रपान करती इस महिला को देखने के लिए भीड़ उमड़ी थी. उसका निधन 1815 में हुआ. 1994 में जब नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति हुए, तब उन्होंने फ्रांस सरकार से गुहार की कि उसके अवशेषों को उसके गृह प्रदेश लाया जाये.
संविधान की धारा 342 के अंतर्गत अनुसूचित आदिवासियों का हिस्सा भारत की आबादी का 8.2 है तथा उनके समुदायों की संख्या सात सौ से अधिक है. उनके जीवन की प्रचंड वंचनाओं पर परदा डालते हुए उन्हें सशरीर नुमाइश की वस्तु बनाने के इस सिलसिले की जितनी निंदा की जाये, कम है. उनकी इस नुमाइश को एक राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर भी देख सकते हैं, जो बेहद सभ्य अंदाज में हर जगह चलती रहती है.
एक तरफ अलग दिखनेवाले, अलग रहन-सहन वाले आदिवासियों के क्षेत्रों में ‘मानवीय सफारी’ का आयोजन, तो दूसरी तरफ उनकी वास्तविक जीवन की अत्यधिक दुर्दशा को लेकर जबरदस्त बेरुखी, एक साथ देखी जा सकती है. देश के आदिवासी क्षेत्रों में तमाम कंपनियों को जैसी छूट मिली हुई है, खनिज पदार्थो के दोहन के नाम पर कितने बड़े पैमाने पर इनका विस्थापन किया जा रहा है, यह सभी को ही मालूम है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें