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साहित्य में विमर्शों का बोझ

kshamasharma1@gmail.com पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ है कि कोई कहानी संकलन, कोई उपन्यास पढ़ने को उठाया, कुछ पृष्ठ पढ़े लेकिन मन उकता गया. इन दिनों कुछ पृष्ठ पढ़ते, पात्रों के नाम, उनकी जाति, धर्म, जेंडर जानते ही पता चल जाता है कि इनमें कौन अन्याय करेगा, कौन शोषण करेगा. किसका शोषण होगा और अंत […]

kshamasharma1@gmail.com

पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ है कि कोई कहानी संकलन, कोई उपन्यास पढ़ने को उठाया, कुछ पृष्ठ पढ़े लेकिन मन उकता गया. इन दिनों कुछ पृष्ठ पढ़ते, पात्रों के नाम, उनकी जाति, धर्म, जेंडर जानते ही पता चल जाता है कि इनमें कौन अन्याय करेगा, कौन शोषण करेगा. किसका शोषण होगा और अंत में किसकी जीत होगी. बहुत से साहित्यकारों को विमर्शों के आसान फॉर्मूले मिल गये हैं, जिनमें हार-जीत पहले से तय होते हैं.

स्त्री विमर्श एक ऐसा ही फॉर्मूला है, जिसमें औरतें हमेशा देवियां होती हैं, पुरुष और उसके परिवार वाले राक्षस तथा उसके घर की औरतें राक्षसियां. इतना सरलीकृत फॉर्मूला और उससे उपजनेवाली रचनाओं को महान की कोटि में समझना, विमर्शों का यह बैगेज काफी उबाऊ है.

इन रचनाओं को देखकर सत्तर-अस्सी का दशक याद आता है. जब एक से एक लघु पत्रिकाएं निकलती थीं. उनके नायक लेनिन और माओ की क्रांतिकारी भाषा बोलते थे.

जमींदार या पूंजीपति के खिलाफ पूरी रचना में मोर्चा खोलते थे और अंत में कुल्हाड़ा या हंसिया लेकर बदला लेने निकल पड़ते थे. उनकी ये वीरता आम पाठक को बहुत पसंद आती थी. लेकिन कहानियों में चाहे जितने बदले लिये गये, शोषणकर्ता को मारकर शोषण का अंत समझ लिया गया, मगर वास्तव में क्या ऐसा हो सका.

जो साहित्य खुद को समाज की मशाल समझता था, वह तो समाज के मामूली बदलावों को भी नहीं समझ सका. साहित्य में क्रांति होती रही और राजनीति ने चुपके से वेलफेयर स्टेट का खात्मा कर डाला. राजनीति से आगे चलनेवाला साहित्य और अहंकार में डूबे रहनेवाले साहित्यकार कि वे ही समाज को दिशा देनेवाले हैं.

अपनी कलम के तीसरे नेत्र से वे समाज की समस्याओं को बहुत पहले देख लेते हैं, ये सब गलत साबित हुए. हालत तो यह पहुंच गयी कि मीडिया तक समाज सुधार की बातें करने से बचने लगा. यहां भी रोल मॉडल के नाम पर अमीरों का लाइफस्टाइल छा गया. उन्हें आम आदमी के लिए आदर्श की तरह पेश किया जाने लगा और बताया जाने लगा कि पाठक यही सब पढ़ना चाहते हैं. अमीरी के प्रति ऐसा अनुराग पहले शायद ही देखा गया हो.

एक तरफ विमर्शों के जरिये अधिकारवाद की झाड़ू जेट की गति से चल रही थी, तो दूसरी तरफ धीरे-धीरे लोगों के अधिकार खत्म हो रहे थे. साहित्य ने भी विमर्शों का नारा तो लगाया, लेकिन अधिकारों के खत्म होने की शिनाख्त नहीं की.

जब अधिकारों की बात होगी, तो कर्तव्यों की बात भी सामने आयेगी. यदि नौकरी से अच्छी तनख्व्वाह चाहिए तो कर्तव्य यानी काम भी करना पड़ेगा. अपने देश में ट्रेड यूनियन आंदोलनों के हाशिये पर चले जाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि कर्तव्यों के बारे में किसी महान नेता ने नहीं बताया.

बस यही बताया कि संघर्ष करो और अपना अधिकार न मिले तो उसे छीन लो. कविता, कहानी, उपन्यास भी इसी व्याधि के शिकार रहे हैं और आज भी हैं. अफसोस की बात यह है कि विमर्शों के कोलाहल ने एक वर्ग की बात को बिल्कुल भुला दी.

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