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जरूरी है घरेलू मांग में बढ़ोतरी करना
अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org वर्तमान में यदि कई कार कारखाने बेकाम पड़े हैं या उनके पास कारों का बड़ा जखीरा जमा है, तो इसकी एक वजह यह हो सकती है कि इस क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा निवेश हो गया था. कुछ वर्षों पूर्व की चढ़ी मांग को देखते हुए कई कार […]
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
वर्तमान में यदि कई कार कारखाने बेकाम पड़े हैं या उनके पास कारों का बड़ा जखीरा जमा है, तो इसकी एक वजह यह हो सकती है कि इस क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा निवेश हो गया था. कुछ वर्षों पूर्व की चढ़ी मांग को देखते हुए कई कार कंपनियों ने अपनी क्षमता-वृद्धि में निवेश कर दिया.
उनके एक-दूसरे से स्वतंत्र तथा गैर-समन्वित निवेशों के कुल योग के नतीजे में जरूरत से अधिक उत्पादन हो गया. परिणामस्वरूप उसे खपाने को उन्हें मूल्यों में कटौती करनी पड़ी. यह अत्यधिक निवेश के नतीजतन उपजी मंदी तथा बाजार की अर्थव्यवस्था का एक अपरिहार्य हिस्सा है.
साल 1990 के मध्य दशक में स्टील क्षेत्र के साथ भी यही घटित हुआ था, जब उसमें विशाल निवेश कर उत्पादन क्षमताएं बढ़ा ली गयीं, जो अनुपयोगी होकर बड़ी परेशानियों की कारक बन गयीं. पर अंततः, कीमतों में कमी होने के फलस्वरूप बढ़ती बिक्री से उत्पादन क्षमताओं के इस्तेमाल में सुधार आता है और ऐसी मंदी स्वयं ही अपना उपचार कर लेती है.
यह एक चक्र है, जिसमें फिर से उछाल आना अनिवार्य है, क्योंकि अंतर्निहित मांग अभी भी मजबूत है. पश्चिम की अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह चक्रीय परिवर्तन सामान्य है. कुछ हद तक यही अब भारत के साथ भी हो रहा है.
मगर यदि अंतर्निहित मांग ही कमजोर हो, तब क्या होगा? तब यह कारोबारी चक्रीय स्थिति घूमकर ऊपर नहीं जायेगी. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि इसे वैश्विक मांग के द्वारा संतुलित किया जाना चाहिए.
पर वैसा केवल छोटी और खुली अर्थव्यवस्थाओं में ही होता है और वह भी तब, जब वैश्विक मांग मजबूत हो. भारत जैसी एक बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए, और वह भी एक मंद होती वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत, ऐसा नहीं भी हो सकता है. अभी यहां हम जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं, वह चक्रीय मंदी न होकर बड़ी हद तक संरचनात्मक मंदी है, जिसके गहरे विश्लेषण तथा दूरगामी समाधान जरूरी हैं.
आपूर्ति संबंधी अन्य नवोन्मेषों का एक उदाहरण, जिसने काफी वृद्धि लायी, ‘सैशे क्रांति’ है. प्रौद्योगिकी ने यह संभव कर दिया कि गुणवत्ता के साथ कोई समझौता किये बगैर उत्पादों एवं सेवाओं को उनकी एक अत्यंत लघु मात्रा में बेचा जा सकता है.
शैंपू, अचार, ऋणों, फोन से बातें करने के लिए समय या डाउनलोड के लिए डाटा के मामलों में यह संभव हो सका. इससे ऐसी मांगों की भी आपूर्ति की जा सकी, जिनकी अब तक अनदेखी हो रही थी. मगर इससे भी ‘कुल मांग’ में कमी का समाधान नहीं निकाला जा सकता.
इसलिए अभी जो लोग उत्पादन लागत में कमी, कारोबारी सुगमता में वृद्धि, लाइसेंस एवं इंस्पेक्टर राज में कमी जैसे सिर्फ आपूर्ति संबंधी हस्तक्षेपों की मांग कर रहे हैं, वे इससे बड़ी समस्या को नजरअंदाज कर रहे हैं.
यह सही है कि आपूर्ति संबंधी उपर्युक्त कदम उठाने भी जरूरी हैं. पर वर्तमान संदर्भ में, हमें ‘कुल मांग’ में कमी की समस्या का सामना करना है. भारत की जनसांख्यिकी एवं अपेक्षतया ऊंची बचत दर को देखते हुए ‘कुल मांग’ की समस्या को उजागर करना कुछ विचित्र लग सकता है.
इसके अलावा, यह सवाल भी है कि यदि घरेलू मांग अपर्याप्त है, तो क्या भारतीय उत्पादकों को वैश्विक मांग की भी पूर्ति नहीं करनी चाहिए? आखिरकार, व्यापारिक वस्तुओं के वैश्विक निर्यातों में भारत का हिस्सा केवल 2 प्रतिशत ही तो है? इसके बावजूद, हमें घरेलू मांग में वृद्धि के उपाय भी करने ही चाहिए.
इस हेतु, तुरंत राजकोषीय उपाय करने की जरूरत है, क्योंकि जो भी किया जाता है, उसकी एक राजकोषीय लागत होती है. यूपीए-1 सरकार के वक्त, राजकोषीय व्यय-आधारित तरीके से अलग अधिकार-आधारित तरीके पर जोर था.
पर काम के अधिकार (नरेगा), खाद्य का अधिकार अथवा शिक्षा का अधिकार के राजकोषीय निहितार्थ भी थे. आज तक भी उन विधानों की प्रभावशीलता पर बहस जारी है, हालांकि काम के अधिकार का देश के कुछ हिस्सों में निश्चित ही अहम असर पड़ा.
इसलिए, चाहे हम संशोधित अधिकार-आधारित तरीके को अपनायें या सीधे राजकोषीय-समर्थित तरीके से कुल मांग में सुधार लायें, संरचनात्मक मंदी से निजात पाने का यही एकमात्र उपाय है. यदि हम अर्थव्यवस्था के साथ कुछ संरचनात्मक समस्याओं को देखें, तो श्रम बल में महिलाओं की न्यून भागीदारी को सबसे ऊपर पायेंगे, जो 22 प्रतिशत के स्तर पर हमारी समतुल्य अर्थव्यवस्थाओं में न्यूनतम है.
क्या हम इस दिशा में कुछ मौलिक कदमों की सोच सकते हैं, मसलन, अगले दस वर्षों के लिए महिला कामगारों के लिए शून्य आयकर? या वैसे कारखानों के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन, जिनमें एक नियत प्रतिशत से ऊपर केवल महिला कामगार हों? अथवा क्या कुछ सरकारी खरीद केवल महिला उद्यमियों से की जा सकती है?
दूसरा, पारिवारिक वित्तीय बचत दर में कमी के सुधार हेतु क्या हम सौवरेन गोल्ड बांड जैसे डीमैट सोने को जोरदार ढंग से बेच सकते हैं?
दीर्घावधि बचत के लिए और अधिक कर प्रोत्साहन दे सकते हैं? तीसरी समस्या पिछले पांच-छह वर्षों से निर्यातों में आयी जड़ता है. इस पर उच्चतम स्तर पर गौर किया गया है, जिसमें नीति आयोग के उपाध्यक्ष के नेतृत्व में गठित एक पैनल भी है. हमें श्रम-सघन विनिर्माण क्षेत्र जैसे, वस्त्र एवं परिधान, चमड़ा तथा फुटवियर, कृषि-प्रसंस्करण के साथ ही पर्यटन एवं निर्माण जैसी सेवाओं पर गौर करने की जरूरत है.
यह जरूर है कि चीन से हटती, खासकर सस्ते श्रम सबंधी विनिर्माण गतिविधियों और इलेक्ट्रॉनिक असेंबली को सक्रिय रूप से पकड़ने जैसे कुछ अतिरिक्त कारक भी हैं. चीन से संबद्ध यह अवसर निजी क्षेत्र की पहलों पर निर्भर है, पर सरकार इसे प्रोत्साहित तो कर ही सकती है. कुल मांग में सुधार के अन्य अनेक उपाय हो सकते हैं.
फिर हमें आपूर्ति संबंधी उपायों की अनदेखी भी नहीं करनी चाहिए जैसे, जीएसटी का सरलीकरण, यानी आदर्शतः केवल एक अथवा दो दरें, इंस्पेक्टर राज में कमी मगर नियमों के उल्लंघन पर कड़ा दंड, न्यूनतम छूट के साथ आयकर की न्यून दरें और कर संग्रहण में न्यूनतर बल प्रयोग, आदि. अभी सरकार ने अपने सभी वेंडरों के सभी बकायों की अविलंब अदायगी की घोषणा की है, जो स्वागत योग्य कदम है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि एक स्वस्थ कुल मांग तथा उद्यमियों की ज्यादा जिजीविषा की ओर हमारी यात्रा की शुरुआत हो चुकी है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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