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विकास की गति तेज करनी होगी

आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com इस वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल पांच प्रतिशत की दर से बढ़ा, जो पिछले छह वर्षों में न्यूनतम है. मेक इन इंडिया मुहिम के सिरमौर मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) क्षेत्र में तो सिर्फ एक प्रतिशत की ही बढ़त रही. छह वर्षों के दौरान यह […]

आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
aakar.patel@gmail.com
इस वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल पांच प्रतिशत की दर से बढ़ा, जो पिछले छह वर्षों में न्यूनतम है. मेक इन इंडिया मुहिम के सिरमौर मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) क्षेत्र में तो सिर्फ एक प्रतिशत की ही बढ़त रही. छह वर्षों के दौरान यह लगातार दूसरी तिमाही है, जब हमारी जीडीपी वृद्धि छह प्रतिशत से कम रही है, जबकि इसकी गणना के लिए सरकार अब जो विधि प्रयुक्त कर रही है, उसे सरकार के ही पूर्व आर्थिक सलाहकार समेत अन्य कई अर्थशास्त्री त्रुटिपूर्ण मानते रहे हैं.
यहां से आगे सरकार के पास करने के लिए अब बहुत कुछ है, जब इस स्थिति से उबरने के लिए उसे उपयुक्त उपाय निकालकर उन पर अमल करना होगा.
यदि आगे आनेवाले समय में विकास की गति खासी तेज नहीं की जा सकी, तो गरीबी एवं दूसरों पर निर्भरता के उन्मूलन की दिशा में देश की प्रगति बाधित हो जायेगी. हम चाहे देश के किसी भाग में रहते हों, कोई भाषा बोलते हों और चाहे जिस भी धर्म के अनुयायी हों, इस मामले का सरोकार हर एक व्यक्ति से है.
जीडीपी की पर्याप्त वृद्धि मात्र कोई अकादमिक अभिरुचि का बिंदु नहीं है. कुछ ही महीनों पूर्व हमें यह सूचना मिली थी कि भारत की बेरोजगारी दर पिछले पचास वर्षों में अधिकतम हो गयी है. इधर इस दिशा में किसी सकारात्मक प्रगति के कोई संकेत नहीं मिले हैं. ऐसी स्थिति में ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारे पास अपनी अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने के बारे में कुछ ठोस सोचने के लिए कम वक्त ही बचा है.
अभी वैसे भी हमारे सामने हमारी राष्ट्रीय चुनौतियों के साथ ही जलवायु परिवर्तन जैसी पूरी मानवता से संबद्ध विराट चुनौतियां मौजूद हैं, जिनसे पार पाना बाकी है. दुर्भाग्य यह है कि इस बाकी बचे वर्ष के दौरान ही नहीं, अगले वर्ष एवं जहां तक हमारी दृष्टि जाती है, भविष्य में भी सरकार का अधिकतर ध्यान असम, कश्मीर एवं अयोध्या पर टिका रहेगा, जो सब स्वयं उसके ही कृत्यों तथा फैसलों से उपजे मामले हैं.
असम में अंतिम राष्ट्रीय नागरिकता पंजी प्रकाशित हो चुकी है और भारत ने लगभग 19 लाख लोगों को इससे बाहर घोषित कर दिया है. दरअसल, यह एक त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया का परिणाम है, जिसकी तफसील से हम कभी भी वाकिफ नहीं हो सकेंगे. नतीजा तो बस यही है कि हमने एक प्रक्रिया अपना ली है और हमारे द्वारा चयनित यह विकल्प हमें अपने परिणामों तक पहुंचा रहा है. इनमें पहला तो यह है कि ये लाखों लोग अपने पास मतदाता पहचान पत्र के होते हुए भी मताधिकार से वंचित कर दिये जायेंगे.
दूसरा नतीजा यह होगा कि लगभग एक हजार ऐसे लोगों की तरह, जो वहां पूर्व में ही विदेशी घोषित किये जा चुके हैं, ये 19 लाख लोग भी, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है, जेल भेजे जायेंगे. परिवार बंटेगे और बेटियां, बहनें, मांएं तथा पत्नियां परिवार के पुरुषों से विलग कर किसी अन्य जेल में भेज दी जायेंगी, जहां से उन लोगों का एक-दूसरे से कोई संपर्क नहीं हो सकेगा.
इन जेलों के बच्चे अपनी पूरी जिंदगी जेल में ही काटने की संभावनाओं से जूझेंगे. शेष भारत ने उन पूर्ववर्ती हजार लोगों पर तो गौर नहीं किया, पर इन 19 लाख लोगों को कैद रखनेवाले कारा-शिविर इतने विशाल होंगे कि वे नजरों से ओझल नहीं किये जा सकेंगे.
उधर कश्मीर में हमारे द्वारा एक पूरी आबादी को नजरबंद कर देने का फैसला किये अब लगभग एक माह होने जा रहा है. एक स्थायी कर्फ्यू के अंतर्गत उन्हें संचार के किसी भी साधन के बगैर, विरोध व्यक्त करने के किसी भी रास्ते के बिना और निर्णय प्रक्रिया में किसी भी भागीदारी से वंचित रखकर हमने अपने दुश्मनों के लिए हम पर यह आरोप लगाना आसान कर दिया है कि हम एक बलपूर्वक कब्जा जमानेवाली शक्ति हैं.
कभी भारत का समर्थन करनेवालों सहित यहां के हरेक व्यक्ति को बंदी बना देने की एक ही वजह हो सकती है कि जो कुछ भविष्य में घटित होनेवाला है, वह सुंदर तो नहीं है.
अभी हमें कश्मीर में वर्षों तक शत्रुतापूर्ण विरोध का सामना करने की ही उम्मीद करनी चाहिए. असम की तरह, जहां पहले एक हजार बंदियों को भुला दिया गया, कश्मीर की भी आंतरिक हिंसा हमारी जरूरी प्राथमिकताओं में शुमार नहीं है, क्योंकि यह बहुत दिनों से चलती आ रही है. मगर जब हम वहां से प्रतिबंधों को हटा लेने पर मजबूर हो जायेंगे, फिर वहां जिस पैमाने पर जो कुछ होगा, उसे देखते हुए अभी वहां जो कुछ हो रहा है, उसकी अनदेखी कर देना राष्ट्र के लिए बहुत सरल नहीं होगा.
ऐसी तीसरी जगह, जहां हम कार्रवाई करने को बाध्य हो जायेंगे, अयोध्या होगी. संभव है कि सुप्रीम कोर्ट इस वर्ष के अंत से पहले ही अयोध्या मामले पर अपना फैसला सुना दे. मुझे इस बात का अच्छा अंदाजा है कि इस अंतिम फैसले का क्या नतीजा होगा और न्यायपालिका के हाल के व्यवहार को देखते हुए इसकी कल्पना कर पाना भी कोई कठिन नहीं है. लेकिन, चाहे यह फैसला जो भी हो, इसे देखते हुए कि इस सवाल पर पहले ही कितनी हिंसा हो चुकी है, एक बार फिर इस मुद्दे का सामने आना भयभीत होने की चीज होनी चाहिए.
असम और कश्मीर की ही तरह अयोध्या भी एक लंबे वक्त तक ठंडे बस्ते में पड़ा राष्ट्रीय स्मृति से विस्मृत कर एक गैरप्राथमिक मुद्दा हो चुका था. यही बात इन तीनों विकराल मुद्दों के लिए सत्य है, जो आज हमारे सामने अनावृत्त हो रहे हैं. राष्ट्रीय सरोकार तथा भावनाओं के अर्थ में हमें इनमें बहुत कुछ निवेशित करना होगा. इतना अधिक, जैसा हमने पहले कभी नहीं किया है.
हममें से जो लोग भारतीय राज्य द्वारा अपने ही नागरिकों से बरताव करने के तौर-तरीके के विरोधी रहे हैं, ऐसे लगातार जारी दमन को मूक भाव से देखते रहने में असमर्थ रहेंगे.
दूसरी ओर, वैसे लोग भी जिनकी भावनाएं गद्दारों, विदेशियों, राष्ट्र-विरोधियों के विचारों से भड़कती हों, उतने ही उत्तेजित रहेंगे. एक राष्ट्र के रूप में हम अपनी ही पसंद से लिये गये अपने ही फैसलों से खुद के टुकड़े कर रहे हैं. शेष विश्व हमारे लिए यह दिखाते रहना दूभर कर देगा कि हमारे द्वारा किये जा रहे सारे दमन हमारे आंतरिक मुद्दे होने की वजह से उचित हैं.

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