झारखंड के लिए बड़ी चिंता की बात है कि उसके पास केंद्र सरकार से पैसा आता है, मगर खर्च नहीं हो पाता. वह लौट जाता है. बार-बार केंद्र से पैसों की मांग की जाती है, लेकिन सत्य यह है कि केंद्र पोषित योजना का पैसा भी अधिकारी खर्च नहीं कर पाते.
जब यह स्थिति सामने आयी है तो राज्य के मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती को उपायुक्तों की बैठक बुलानी पड़ी. बैठक में उन्हें कहना पड़ा कि जिस उपायुक्त के कारण राज्य को केंद्रीय सहायता नहीं मिलेगी, उसके खिलाफ कार्रवाई की जायेगी.
राज्य में कार्य-संस्कृति का हाल यह है कि राशि खर्च करने के बाद एजी को उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं भेजा जा रहा है. बार-बार सरकार से आग्रह किया जाता है, इसके बावजूद एजी को रिपोर्ट नहीं भेजी जाती. केवल ‘अतिरिक्त केंद्रीय सहायता’ में 2111 करोड़ रुपये का बिल लटका है. ऐसी बात नहीं है कि हर जिले में यही हाल है.
कुछ जिले राशि खर्च करने, हिसाब देने में नियमों और समय का पालन कर रहे हैं, लेकिन अनेक जिले हैं जहां केंद्र की योजनाओं पर अधिक फोकस नहीं है. झारखंड में योजनाओं में बड़ी गड़बड़ी होती है इसलिए कई अधिकारियों ने चुप्पी साध ली है. उनका मानना है कि न काम होगा न गड़बड़ी होगी. अपने को सुरक्षित करने का यह सबसे आसान रास्ता है. इसलिए केंद्र से पैसा आता है, पड़ा रहता है, फिर लौट जाता है. यह चक्र चलता रहता है.
इसका खमियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है. जब हिसाब नहीं देंगे तो केंद्र पैसा नहीं देगा. जब पैसा नहीं आयेगा तो काम नहीं होगा. यानी, अधिकारियों की सुस्ती का असर लोगों पर पड़ रहा है. यह समस्या आज की नहीं है. राज्य बनने के बाद से यही हाल है. हर साल बड़ी राशि केंद्र को लौटा दी जाती है.
मुख्य सचिव भले ही कार्रवाई की चेतावनी देते रहें, पर सच यह है कि राज्य बनने के बाद 14 साल में अभी तक ऐसे मामले में किसी बड़े अफसर के खिलाफ सरकार ने कार्रवाई नहीं की है. जब भी गाज गिरती है, छोटे अधिकारियों-कर्मचारियों पर ही गिरती है. अगर हर साल समय-समय पर इसकी मानिटरिंग होती तो आज ये हालात नहीं होते. अगर केंद्र को लौटायी गयी कुल राशि का हिसाब किया जाये तो यह इतनी बड़ी राशि निकलेगी जिससे लाखों परिवारों का जीवन स्तर सुधर सकता था.