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धरती तो बचे

अगर दुनिया में हरियाली, जानवर, पक्षी, कीट-पतंगे आदि कम होते जायें, पानी, हवा और जमीन में जहर घुलता जाये तथा ध्रुवों की बर्फ पिघलकर समुद्र का स्तर बढ़ाती रहे, तो मनुष्य का अस्तित्व कब तक बचा रह सकता है? आज यह सबसे बड़ा सवाल है. वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षों से इस संकट से आगाह […]

अगर दुनिया में हरियाली, जानवर, पक्षी, कीट-पतंगे आदि कम होते जायें, पानी, हवा और जमीन में जहर घुलता जाये तथा ध्रुवों की बर्फ पिघलकर समुद्र का स्तर बढ़ाती रहे, तो मनुष्य का अस्तित्व कब तक बचा रह सकता है?
आज यह सबसे बड़ा सवाल है. वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षों से इस संकट से आगाह करते आ रहे हैं, पर हम बेपरवाह हैं. यह जरूर है कि दशकों से राजनेता, प्रशासक और उद्योगपति सम्मेलनों में जलवायु संकट गंभीर होने, वैश्विक तापमान बढ़ने, जंगलों के कटने, जानवरों के विलुप्त होने तथा जानलेवा प्रदूषण पर चर्चा करते रहे हैं.
समझौते भी होते रहे हैं, परंतु इन कोशिशों के नतीजे निराशाजनक रहे हैं. अगर हम भारत के हालात पर नजर डालें, तो आज हम भयावह जल संकट का सामना कर रहे हैं. दुनिया के सबसे प्रदूषित और गर्म शहर हमारे देश में हैं. सबसे प्रदूषित नदियां हमारे देश में बहती हैं. सूखे और बाढ़ जैसी आपदाओं की बारंबारता सबसे अधिक हमारे यहां है.
शहरीकरण और अंधाधुंध विकास की दौड़ में हमने अपने जंगलों को रौंदा, तालाब पाटे और नदियों को नालों में बदल दिया. विभिन्न स्वास्थ्य कारणों से होनेवाली मौतों का हिसाब देखें, तो भारत में वायु प्रदूषण तीसरा सबसे बड़ा कारण है. लाखों लोगों की सालाना मौत और बीमारियों से त्रस्त शहरी आबादी के बावजूद वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कोई ठोस नीतिगत पहल नहीं की जा सकी है. स्वच्छ ऊर्जा में अपेक्षित गति से प्रगति नहीं है और कार्बन उत्सर्जन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.
खराब पानी पीने से करोड़ों लोग हर साल बीमार पड़ते हैं और लाखों बच्चों की मौत हो जाती है. प्रदूषित हवा और पानी से पैदा होनेवाली ये समस्याएं स्वास्थ्य सेवा तथा उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं. शहरों में गंदे जल के शोधन की समुचित व्यवस्था नहीं होने से नालियां नदियों को बर्बाद कर चुकी हैं.
यही पानी खेतों में और पीने के काम में लाया जाता है. इस वजह से खतरनाक रसायन सीधे शरीर में जाने के साथ खाने-पीने की चीजों में मिल जाते हैं. जंगलों के लोप से बाढ़ जैसी आपदाएं तो बढ़ती ही हैं, पारिस्थितिकी भी असंतुलित होती है. देश के विभिन्न हिस्सों में मानव और जंगली जीवों के बीच टकराव की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अर्थव्यवस्था और समृद्धि के लिए विकास की गति को बरकरार रखना जरूरी है, लेकिन पर्यावरण के संरक्षण से हम आर्थिक बचत भी कर सकते हैं. ऐसे अनेक अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि प्रदूषण की रोकथाम पर निवेश करना समझदारी है क्योंकि इससे बीमारी और मौतों को रोका जा सकता है तथा स्वास्थ्य खर्च में बचत की जा सकती है.
राष्ट्रीय नीति तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से पर्यावरण के संकट के समाधान के प्रयास आपात स्तर पर किये जाने चाहिए. इस प्रयास में सरकारों के साथ उद्योग जगत, मीडिया और नागरिकों की समुचित भागीदारी जरूरी है.

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