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मुसीबत है मोबाइल गेम
सेवाओं, सुविधाओं और मनोरंजन को सुलभ बनाने में डिजिटल तकनीक और इंटरनेट ने बड़ी भूमिका निभायी है. इससे जानकारी और सूचनाएं जुटाना भी आसान हुआ है. वीडियो, कंप्यूटर और मोबाइल के खेल इस प्रक्रिया के अहम हिस्से हैं, लेकिन इनके नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी करना नुकसानदेह हो सकता है. दो साल पहले ब्लू व्हेल नामक […]
सेवाओं, सुविधाओं और मनोरंजन को सुलभ बनाने में डिजिटल तकनीक और इंटरनेट ने बड़ी भूमिका निभायी है. इससे जानकारी और सूचनाएं जुटाना भी आसान हुआ है.
वीडियो, कंप्यूटर और मोबाइल के खेल इस प्रक्रिया के अहम हिस्से हैं, लेकिन इनके नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी करना नुकसानदेह हो सकता है. दो साल पहले ब्लू व्हेल नामक खेल ने बच्चों और किशोरों को आत्महत्या तक करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया था. अब अनेक खेलों पर वैसे ही आरोप लगने लगे हैं. पिछले महीने गुजरात के स्कूलों में बेहद लोकप्रिय मोबाइल गेम पीयूबीजी को प्रतिबंधित किया गया है.
अब दिल्ली के बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इसके साथ कुछ अन्य खेलों को चिह्नित करते हुए रोक की गुहार लगायी है. इन खेलों की लत के शिकार बच्चों में पढ़ाई को लेकर उदासीनता बढ़ रही है, व्यवहार में उग्रता आ रही है तथा वे अवसाद के भी शिकार हो रहे हैं.
मोबाइल के बहुत अधिक इस्तेमाल से बच्चों की मानसिक क्षमता कम होने के साथ मस्तिष्क में ट्यूमर और कैंसर जैसी घातक बीमारियां भी हो सकती हैं. पिछले साल अमेरिका के मिशिगन विवि ने जानकारी दी थी कि पांच साल से कम आयु के बच्चों के लिए बनाये गये अधिकतर लोकप्रिय एप साथ में भ्रामक विज्ञापन भी संलग्न करते हैं, जो बच्चों के लिए ठीक नहीं हैं.
अनेक शोध इंगित कर चुके हैं कि बड़े बच्चों के लिए ऐसे विज्ञापन परोसे जा रहे हैं, जो भावनात्मक और मानसिक स्तर पर घातक हो सकते हैं. बच्चों को डराने-धमकाने और उनके शोषण के मामले भी सामने आते रहते हैं. एक अध्ययन के अनुसार, हमारे देश में 2017 में 22.2 करोड़ लोगों ने रोजाना औसतन 42 मिनट समय खेलों में लगाया था. पीयूबीजी पिछले साल मार्च में आया था और आज इसके कुल खिलाड़ियों में तीन-चौथाई लोग मोबाइल पर इसे खेलते हैं.
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इन खेलों पर देशव्यापी रोक की मांग की है. दुर्भाग्य है कि कई स्कूलों द्वारा चेतावनी देने के बाद भी अभिभावक बच्चों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं. माता-पिता द्वारा डांटने पर बच्चों में आक्रामकता और आत्महंता जैसी प्रवृत्तियां भी आ रही हैं. जाहिर है, खतरनाक मोबाइल खेलों के चंगुल ंसे बच्चों को छुड़ाना आसान नहीं है.
यह मसला सिर्फ डांटने-डपटने से हल नहीं होगा. अभिभावकों और शिक्षकों को लत के शिकार बच्चों की पहचान कर उन्हें मनोवैज्ञानिक मदद के जरिये बाहर निकालना होगा. स्कूलों और परिवारों में जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है. प्रतिबंध लगाने का विकल्प भी है, पर अगर बच्चे के पास मोबाइल होगा, तो वह इसका इस्तेमाल करेगा ही.
डिजिटल मामलों में कानूनी स्तर पर पाबंदी कारगर नहीं होती है, क्योंकि इंटरनेट के अथाह समंदर में खतरनाक खेलों और वेबसाइटों की भरमार है. ऐसे में बच्चों को समझाने-बुझाने तथा मनोरंजन के स्वस्थ संसाधनों को बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए.
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