जिस तरह से हिंसक घटनाओं का सिलसिला पूरे देश में चल रहा है, वह न सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था संभालनेवाली मशीनरी के लिए बल्कि समाजशास्त्रियों के लिए भी शोध का विषय है. अब आये दिन हवस की शिकार बनी मासूमों की निर्दयतापूर्वक हत्याओं का एक सिलसिला चल पड़ा है जो दिन-प्रतिदिन समाप्त होती संवेदनाओं की कड़ी है.
इस तरह की हत्याओं का सिलसिला यही बताता है कि उपभोक्तावाद के इस युग में हम मानवीय संवेदनाओं को पीछे छोड़ते जा रहे हैं. साथ ही अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति तथा सामाजिक तनाव व बैचेनी भी झलकती है. पूंजीवाद के दौर में सर्वसुविधासंपन्न वर्ग और निर्धनों की बढ़ती खाई कहीं इस तरह की मानसिकता की जिम्मेदार तो नहीं? इस सामाजिक तनाव का कोई हल शीघ्र निकालना होगा, वरना अपराध के नीचे गिरते स्तर का भुगतान हमें ही करना पड़ेगा.
अंशुमन भारती, कोलकाता