रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
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हिंदी के प्रतिष्ठित कवि आलोक धन्वा ने एक बातचीत में युवा कवि निशांत के प्रश्न ‘आपकी कोई ऐसी इच्छा जो अधूरी हो’ का यह उत्तर दिया है- ‘इच्छा तो है. मैं इस ढहते हुए भारत को बचाना चाहता हूं.’ (इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2018, पृष्ठ 199). सवाल ‘वैयक्तिक इच्छा’ का था.
आलोक ने कहा- ‘ना, वह नहीं है मेरा… मैं सामाजिक व्यक्ति हूं. मेरी इच्छाएं भी सामाजिक होंगी.’ बहुत सारे कवियों की निजी इच्छाएं भी होती हैं- यश-ख्याति, पुरस्कार-सम्मान की इच्छा. इन सबसे परे केवल सामाजिक इच्छाओं का होना सचमुच बड़ी बात है, यद्यपि अब ‘समाज’ का अर्थ भी बदल चुका है. कवियों ने भी अपना एक ‘समाज’ बना लिया है, उस बृहत्तर समाज से भिन्न है, जिसमें कवि ने अपनी आंखें खोली थीं और दृष्टि-शक्ति ग्रहण की थी.
‘इच्छा’ के बिना कोई कर्म नहीं होता. इच्छा के वेग से आगे की दिशा निर्धारित होती है, कवि और उसकी कविता की सक्रियता का पता लगता है. कर्म के बिना इच्छा का कोई अर्थ नहीं है.
वह निष्क्रिय है, मृत है. ‘कामायनी’ में प्रसाद ने ज्ञान, क्रिया और इच्छा के अलग-थलग पड़े रहने की बात कही है- ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक-दूसरे से न मिल सकें/ यह विडंबना है जीवन की…’ संभव है, कई कवियों ने प्रसाद की काव्य-पंक्ति का मर्म भी ग्रहण किया हो और अपनी सामाजिक इच्छाओं को धार भी दी हो.
हम सब जिस समय में रह रहे हैं, उसमें जिनका ‘लोहा’ है, ‘धार’ भी उनकी ही है. संभव यह भी है कि कई कवि और उनके पाठक ‘ढहते भारत’ से सहमत न हों. बहुतों के लिए भारत ‘शाइनिंग’ है, ‘स्मार्ट’ है, ‘डिजिटल’ है और ‘न्यून’ है.
उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तीन लाख दस हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बीते 30 नवंबर को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले 200 से अधिक किसान संगठनों ने दिल्ली में रैली कर किसानों की समस्या पर संसद का एक विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग की, जिसमें किसानों के लिए दो कानून पास करने को कहा- फसलों के उचित दाम की गारंटी का कानून और किसानों को कर्ज-मुक्त करने का कानून. अब ‘तमाम कलम चलानेवालों’ और ‘तमाम हल चलानेवालों’ में दूरी आ गयी है.
क्या इस ‘ढहते भारत’ के लिए थोड़ा ही सही, कवि जिम्मेदार नहीं हैं? क्या हिंदी के कवियों ने सदैव सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह किया है? अगर सचमुच ऐसा होता, तो कवि और उसकी कविता दोनों में आग बची रहती. उरुग्वे के विश्वविख्यात लेखक-उपन्यासकार एदुआर्दो गालेआनो से जब यह पूछा गया था कि अगर हमारे सामने आग लगी हो, तो हमें क्या करना चाहिए? उनका उत्तर था- ‘हमें आग बचानी चाहिए.’ हिंदी के कविगण ही यह बतायेंगे कि उनके भीतर कितनी आग बची हुई है या अभी कुछ चिंगारियां शेष हैं, जो इकट्ठे होने पर ही दहकेंगी. भारत लगातार ढह रहा है.
संस्थाएं ढायी जा रही हैं. संविधान पर हमले हो रहे हैं. संसदीय लोकतंत्र प्रश्नांकित है. और राजनीतिक दलों की एकमात्र चिंता सत्ता पर काबिज होने की है. सब कुछ चुनाव में सिमट चुका है, जबकि नागार्जुन ने 1972 में ही लिखा था- ‘अब तो बंद करो हे देवि! यह चुनाव का प्रहसन.’ सामान्य जन निष्क्रिय नहीं है. छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं.
यह दूसरी बात है कि उसका अभी तक कोई अखिल भारतीय स्वरूप विकसित नहीं हुआ है. यह नायक रहित समय है. कहीं अधिक खूंखार, क्रूर और भयावह इस समय में शब्द और भाषा को, संवेदना और विचार को बचाने की जरूरत है. यह कवि को स्वयं तय करना होगा कि वह इन सबको कैसे बचा सकता है.
एसी कमरे में कविता-पाठ से कविता भी नहीं बचेगी. पूरा हिंदी प्रदेश दक्षिणपंथियों का गढ़ है और हिंदी के अधिकतर कवि-लेखक प्रगतिशील और मार्क्सवादी हैं. क्या वे जनता से कट चुके हैं? जनता से, जन-जीवन से उनका लगाव और संबंध कितना है? कविता के मोर्चे पर भी ढहते भारत को बचाने की चिंता कम है. क्या यह आग को बचाये रखने और उस आग में जल जाने का समय नहीं है?
हर ‘सीरियस पोएट’ को पहले अपने समय में ही जीना है. स्वतंत्र भारत में शासक वर्ग की हिंसा पर अधिक नहीं लिखा गया है. सत्तर के दशक में जो सत्ता के विरोध में थे, उनमें आज भी सत्ता के साथ न हैं, न होंगे.
नक्सलबाड़ी आंदोलन पर आज भी विचार हो रहा है, पुस्तकें छप रही हैं. ‘पॉलिटिकली’ वह आंदोलन भले ‘गलत’ या विफल रहा हो, पर उसने पहली बार एक विकल्प प्रस्तुत किया था.
छह जून, 2018 को मंथली रिव्यू प्रेस, न्यूयार्क से बर्नार्ड मेलो की एक पुस्तक आयी है- ‘इंडिया आफ्टर नक्सलबाड़ी: अनफिनिस्ड हिस्ट्री.’ सच्चे कवि के समक्ष संकट यह है कि वह कैसे अपनी कविता में ‘धार’ पैदा करे, कैसे वह अपने समय और समाज से जुड़े, कैसे उसके सृजन में आग, ताप, बेचैनी, करुणा और क्रोध हो? कैसे वह ढहते भारत को बचाये.
यह केवल पुरस्कार-वापसी, हस्ताक्षर अभियान और कभी-कभार छिटपुट आयोजनों से संभव नहीं होगा. ध्वंस के इस समय में सृजनरत होना आवश्यक है. यह गांधी का समय नहीं है और न ‘मॉब लिंचिंग’ को ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ से समाप्त किया जा सकता है. अगर सभी कवियों में ‘ढहते हुए भारत को बचाने की इच्छा’ है, तो उन्हें एकजुट होना होगा.
अगर आज भी हिंदी प्रदेश (विशेषत: बिहार और यूपी) सांस्कृतिक जागरण और अभियान आरंभ करें, तो भारत को और अधिक ढहने से बचाया जा सकता है. ‘पहल’ कौन करेगा? कब करेगा? कैसे करेगा?