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अब समझो बरखा रुत आयी..

।। चंचल ।। सामाजिक कार्यकर्ता बैंक लूट का घर रहा. पैसा लोग जमा करते थे, उस पैसे से पूंजीपतियों का धंधा चलता था, कल-कारखाने लगते थे. आजादी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से कहा बैंक को सरकार अपने हाथ में ले. गांव में जब बैंक नहीं था तो क्या था? परधान क भूसा घर था. […]

।। चंचल ।।

सामाजिक कार्यकर्ता

बैंक लूट का घर रहा. पैसा लोग जमा करते थे, उस पैसे से पूंजीपतियों का धंधा चलता था, कल-कारखाने लगते थे. आजादी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से कहा बैंक को सरकार अपने हाथ में ले.

गांव में जब बैंक नहीं था तो क्या था? परधान क भूसा घर था. बैंक स्त्रीलिंग है की पुलिंग? यह लिंगहीन एक तिजारत घर है, जहां पैसा पैसे को खींचता है. चिखुरी से नहीं रहा गया, अखबार पढ़ते हुए उन्होंने पलट कर उमर दरजी को तरेरा- क्या हो रहा है? उमर ने बीड़ी का बंडल लाल्साहेब की और खिसका दिया-कुछ नहीं दद्दा हम लोग गांव को याद कर रहे हैं कि यह कितना बदल गया है. पहली दफा जब चरचा हुई कि अब गांव में भी एक बैंक चलेगी तो दो तरह के लोग रहे यहां एक बैंक के साथ एक विरोध में. सुरजू सिंह ललुआ कमाके लौटे रहे तो रात भर नहीं सोते थे, उन्हें डर रहा कि डकैती हो जायेगी. पर वो बैंक में भी पैसा डालने से डरते रहे कि यह बैंक परधान का है औ जमा कर दिये तो मिलनेवाला नहीं है. आज लाइन लगी है.

लाल्साहेब ने चुटकी ली- इत्ता ही नहीं दद्दा! बैंक ना खुली होती तो गांव बुड़बक ही रह जाता, यह अंगरेजी कहां सीख पाता! पासबुक, विड्राल, चेक, क्रेडिट कार्ड.. अपने लखन कहार को देखिये, अब यह भी दस्खत नहीं करता, कहता है ‘सैन किया और रोकड़ निकाल लिया’. लखन कहार से नहीं रहा गया-एक बात सुन ल भाई, लाल्साहेब हमरे साथ के हैं, गदहिया गोल में बैठते रहे और हम रहे मानीटर. आज हम्मे समझा रहे हैं कि हम अंगरेजी काहे बोलते हैं? कयूम ने कहा-एक बात बताया जाये, बैंक क खर्च कौन देता है? सरकार देती है, कीन उपाधिया तो देने से रहे. कीन को देखते ही लाल्साहेब को खुजली होने लगती है.

हम कहां से देंगे भाई. बरसात सामने खड़ी बा, खेती क औजार सब किरपाल लोहार के हियां बन के तैयार बा. कयूम ने टोका- चुनाव में जो मिला रहा सब खर्च? कीन मुस्कुरा दिये! लाल्साहेब लघु शंका की तैयारी में थे, लेकिन वहीं से पलट आये- सरासर झूठ! हमारे सामने की बात है. लाल्साहेब दीवार की आड़ में चले गये. लाल्साहेब के पास एक नया सवाल रहा- नयी सरकार कह रही है कि किसानों को जो कर्ज मिलेगा, उस पर बैंक दो-चार फीसदी ब्याज बढ़ायेगी. दो-चार फीसद से का होता है.

किसी सूदखोर से पैसा लो, तब पता चलेगा कि ब्याज किसे कहते हैं. सामलाल तेली बिनेसरी सिंह से पांच हजार लिये रहे. अब तक कुल अड़तालीस हजार दे चुका है, मूल जस क तस बना हुआ है. बैंक उससे तो ठीक ही है. लो चाय आ गयी..

चाय की चुस्की लेते हुए चिखुरी ने संजीदगी से बताना शुरू किया- बैंक लूट का घर रहा. पूंजीपतियों के हाथ रहा. पैसा लोग जमा करते थे, उस पैसे से पूंजीपतियों का धंधा चलता था, कल-कारखाने लगते थे. आजादी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से कहा यह लूट बंद किया जाये. बैंक को सरकार अपने हाथ में ले. पंडित नेहरू तक और उनके बाद तक सरकार दबाव में थी की देश में उद्योग लगे. बड़े-बड़े कल-कारखाने बने तो लोगों को रोजगार मिले और यह हुआ भी.

लेकिन समाजवादी इस सवाल पर अड़े रहे और लड़ते रहे. 1954 में जय प्रकाश नारायण ने नेहरू को एक पत्र लिखा जिसमें कुल चौदह मांगे थीं. नेहरू तैयार भी थे, लेकिन संगठन पर उनकी पकड़ कमजोर थी. सो वह पत्र ठंढे बस्ते में चला गया. 1969 में इंदिरा गांधी ने यह जोखिम लिया और चौदह सूत्रीय कार्यक्रम को पेश कर दिया. इसके समर्थन में पुराने समाजवादी जो कांग्रेस में थे, वे गांधी के साथ हो गये. कांग्रेस ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. तब से बैंक सरकार के आर्थिक कार्यक्रमों को संचालित करते हैं. इसमें एक काम और जोड़ना है ‘गांव क पैसा गांव में’. लेकिन, दबाव कौन बनाये. न अब समाजवादी हैं न किसी मूल सवाल पर बात होती है.

कयूम बोले-सरकार कहती है बैंक गरीबों की मदद भी करती है, लेकिन हम्मे तो कहीं ना दिखा. हम चाह रहे थे कि दो बकरी है चार और हो जाये तो कुछ बात बने, पर मनीजर सुनता ही नहीं. अजीब अजीब सवाल पूछता है- कर्ज लेकर क्या करोगे? बकरी खरीदोगे की कुछ और करोगे? गांव का पैसा शहर जाता है, वहां यह बड़े पूजीपतियों के उद्योग में लगता है. पैसा हमारा, कल-कारखाना उनका और हम उन्हीं के सामने चपरासी बनने के लिए कतार में लगे रहते हैं.

नवल की आंख गोल हो गयी, सरकार पर दबाव बने कि गांव का पैसा गांव में ही लगे. गांव में कुटीर उद्योग खुले. लोग खुद मुख्तारी करें और गांव महबूत हो. ऐसा हो सकता है क्या? उमर दरजी ने सवाल किया. चिखुरी बोले- क्यों नहीं हो सकता. पिछली सरकार ने तो बहुत बड़ा काम किया था स्वयं सहायता समूह बना कर. महिलाएं जितना पैसा जमा करेंगी उतना ही पैसा सरकार देगी. यह जागरूकता गांव को खुद पैदा करना है. एक-एक चाय तो इस पर बनती ही है. इस बार उमर कटेंगे.

हम अपनी चाय कल पियेंगे मुन्ना पांडे इंतजार कर रहे हैं बेल के रस का न्योता है. और नवल की साइकिल उठ गयी- चकाचक की कविता के साथ- बदरी के बदरा पिछिऔले, अब समझो बरखा रुत आयी..

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