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गैर-राजनीतिक सेना और राजनीति

धर्मेद्रपाल सिंह वरिष्ठ पत्रकार भारत हथियारों का बड़ा खरीदार है. यह जगजाहिर है कि खरबों रुपये के हथियार सौदों में करोड़ों रुपये की कमीशनखोरी भी होती है. इसीलिए सेना के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति में अब शासक दल खासी रुचि लेने लगे हैं. सेना प्रमुख के पद पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग की पदोन्नति […]

धर्मेद्रपाल सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

भारत हथियारों का बड़ा खरीदार है. यह जगजाहिर है कि खरबों रुपये के हथियार सौदों में करोड़ों रुपये की कमीशनखोरी भी होती है. इसीलिए सेना के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति में अब शासक दल खासी रुचि लेने लगे हैं.

सेना प्रमुख के पद पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग की पदोन्नति के विरोध में रिटायर्ड जनरल वीके सिंह ने मंत्री पद की मर्यादा और सरकार के सामूहिक उत्तरदायित्व के नियम की धज्जियां उड़ा दी. जब कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने जनरल सिंह का इस्तीफा मांगा, तब रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से स्थिति भले संभाल ली, लेकिन वीके सिंह ने मंत्री पद पर बने रहने का नैतिक आधार खो दिया है.

रक्षा मंत्रलय ने चार जून को सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दाखिल किया था, उसमें साफ कहा गया है कि बतौर थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने अपने अधीनस्थ लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग के विरुद्ध 2012 में जो अनुशासनात्मक कार्रवाई की थी, वह गैर-कानूनी, संदेहास्पद और दुर्भावना से प्रेरित थी.

भारतीय सेना का चरित्र हमेशा गैर-राजनीतिक रहा है. कुछ अधिकारी राजनीति में आये, पर उन्होंने सेना को कभी विवादों में नहीं घसीटा. उन्हें पता है कि इससे सेना के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिसका असर देश की सुरक्षा पर पड़ता है. लेकिन वीके सिंह ने मर्यादा की इस लक्ष्मण रेखा को भी लांघ दिया है. उन्होंने अपने कार्यकाल में मौजूदा सेना प्रमुख विक्रम सिंह और लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग की पदोन्नति रोकने की कोशिश की थी. जाहिरन, उनके इस विरोध के पीछे उनका निजी स्वार्थ है. सुहाग के बाद वरिष्ठता क्रम में लेफ्टिनेंट जनरल अशोक सिंह का नाम है, जो जनरल वीके सिंह के समधी हैं.

सशस्त्र बलों में नियुक्ति को लेकर हाल में कुछ विवाद हुए हैं. अभ्यास के दौरान एक पनडुब्बी में हुए विस्फोट में कुछ नौसैनिकों की मृत्यु के बाद एडमिरल डीके जोशी ने नैतिक आधार पर त्यागपत्र दे दिया था. तब नये एडमिरल की नियुक्ति में 50 दिन की देरी के लिए मनमोहन सरकार की आलोचना हुई. इस मामले में चुनाव आयोग ने सरकार को साफ कहा कि वह ऐसे महत्वपूर्ण पद पर बिना किसी अनुमति के नियुक्ति कर सकती है. तब सरकार ने रोबिन धोवन को नया नौसेना प्रमुख बनाया. रोबिन की नियुक्ति के विरोध में पश्चिम कमान प्रमुख वाइस एडमिरल शेखर सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया. शेखर सिन्हा नौसेना प्रमुख से छह माह वरिष्ठ थे, इसलिए उनके विरोध का आधार समझ में आता है.

भारतीय सेनाध्यक्ष का पद अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील है. हमारा सेनाध्यक्ष तकरीबन 12 लाख सैनिकों वाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना को कमांड करता है, जिसके पास परमाणु हथियारों का जखीरा भी है. अपने अनुशासन और पेशेवर रवैये के लिए हमारी सेना की साख बेजोड़ है. दुर्भाग्य से अब कुछ राजनेता सेना और उसके उच्चाधिकारियों को विवाद में घसीटने लगे हैं. इसका कारण है, भारत द्वारा दुनिया की मंडी से हथियारों की भारी मात्र में खरीद. विश्व बाजार में हथियारों की कुल बिक्री में भारत द्वारा खरीद का हिस्सा दस फीसदी है. यह जगजाहिर है कि खरबों रुपये के हथियार सौदों में करोड़ों रुपये की कमीशनखोरी भी होती है. महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों पर हथियारों की खरीद में घूस लेने का आरोप अक्सर लगता है. हथियारों की खरीद में सशस्त्र बलों और उनके प्रमुख की सहमति जरूरी है. इसीलिए सेना के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति में शासक दल खासी रुचि लेने लगे हैं.

हथियार निर्यात करनेवाले देशों की कंपनियों की नजर भी सेना प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहती है. परमाणु करार के बाद मनमोहन सरकार ने अमेरिका से ‘स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप’ करार किया, जिसकी आड़ में अरबों-खरबों रुपये के शस्त्र सौदे हुए. रूस और इजराइल को पीछे धकेल अमेरिका आज भारत को सर्वाधिक हथियार बेचनेवाला देश बन गया है. सात साल पहले हम अमेरिका से महज 1.5 अरब रुपये के हथियार खरीदते थे. आज उससे 60 खरब रुपये के वार्षिक रक्षा सौदे होते हैं. अमेरिका से अधिकतर सौदे अंतरराष्ट्रीय बाजार में खुली बोली के जरिये नहीं, बल्कि दोनों देशों की सरकारों की पहल पर गुपचुप तरीके से हो जाते हैं, जिनमें ऊंची कीमत वसूली जाती है. पिछली सरकार ने 126 लड़ाकू विमान खरीदने के लिए अंतरराष्ट्रीय बोली आमंत्रित की थी. बोली में अमेरिकी कंपनी टिक नहीं पायी. सौदा फ्रांस की कंपनी को मिला, जिसे रद्द कराने के लिए अब अमेरिका पूरा जोर लगा रहा है.

कांग्रेस की तरह भाजपा सरकार भी अमेरिका से मधुर संबंध रखने में विश्वास करती है. उसका ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि अमेरिका से हमें जो हथियार मिल रहे हैं, वे ज्यादातर रक्षात्मक प्रकृति के हैं, जबकि रूस परमाणु पनडुब्बी, विमानवाहक पोत और मिसाइल जैसे आक्रामक हथियार सप्लाई करता रहा है. अमेरिकी सरकार भारत को हथियार निर्माण तकनीक भी नहीं देती. किसी भी देश की सुरक्षा उसके आयातित हथियारों के जखीरे पर नहीं, स्वदेश में बननेवाले हथियारों पर निर्भर करती है. आशा है कि मोदी सरकार इस बात पर ध्यान देगी.

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